Wednesday 22 September 2010

दबंग की दबंगई में दम है......भाई.....

बहुत दिनों से किसी फिल्म के बारे में कुछ नहीं लिखा,क्योंकि काफी टाइम से कोई फिल्म देखी भी नहीं थी,अभी ३-४ दिन पहले सलमान खान की दबंग देखी,फिल्म मुझे पसंद आयी और फिर सोचा कि अपनी लेखनी को इस तरफ मोड़ा जाए।कोई भी फिल्म जल्दी से मुझे इम्प्रेस नहीं करती है पर इस फिल्म ने ताजगी का अहसास कराया।सलमान का फ्रेश लुक ,सोनाक्षी का ताजगी और मासूमियत भरा चेहरा.....सलमान की दबंग फिल्म रिलीज हो के हिट भी हो गई...ईद-उल-फितर के मौके पर रिलीज़ होने के कारण और इसके आस-पास कोई फिल्म रिलीज़ होने के कारण इसे भरपूर फ़ायदा मिला ....बहरहाल कारण जो भी हो पर फिल्म तो हिट है और सलमान भाई के खाते में एक और सुपरहिट फिल्म का इजाफा हो गया.....अब दबंग की तूती बोल रही है और बोले भी क्यों न....आखिर उनकी दबंगई में तगड़ा दम है भाई। कसा हुआ और एकदम फिट शरीर...उस पर स्टायलिश मूंछे...जो इंस्पेक्टर चुलबुल पाण्डेय यानि सलमान की पर्सनालिटी को एकदम सूट कर रही हैं...उसपर काला चश्मा और उसे बड़े स्टाइल के साथ पीछे शर्ट के कॉलर पर लगाना...और फ़ॉर्मल कपड़ों का मतलब सिम्पल पैंट-शर्ट का क्या गज़ब कॉम्बीनेशन पहना है पाण्डेय जी ने....क्या लगे हैं सलमान इस फिल्म में,वैसे सलमान की फ़िल्में देखने का मुझे कोई खास शौक नहीं है। सच बात बताऊँ तो मैंने ये फिल्म सोनाक्षी सिन्हा की वजह से देखी..चलिए उनकी बात बाद में करेंगे पर फिल्म में सलमान ने मुझे काफी इम्प्रेस कर दिया,ये तो रही फिल्म देखने की वजह,,,,,,अब आगे बढ़ते हैं। सलमान के कपड़ों के बाद फिल्म में जो खास है वो है ....मिर्ची का तड़का यानि एक्शन और कॉमेडी का बेहतरीन तालमेल.....जो पूरी फिल्म की जान है। इसके बाद बारी आती है उस खासियत की जो फिल्म की धड़कन है और फिल्म में रक्त -संचार का काम करती है,,,, वो है इस फिल्म का संगीत......जो काफी पहले ही हिट हो चुका है....तेरे मस्त-मस्त दो नैन.... सबका चैन चुराने में कितने कामयाब रहे, ये बताने की शायद जरुरत नहीं है......मुन्नी भी काफी बदनाम हो चुकी है। हम यहाँ कोई समीक्षा नहीं कर रहे हैं,ये मेरा अपना अनुभव है,जो कुछ भी मैंने महसूस किया वो लिख दिया बस इतनी सी ही बात है। दरअसल बात यह है की हमारे समाज में फिल्मों के नायक बड़ा अहम् रोल निभातें हैं...जो कुछ भी कमाल वो परदे पर करतें हैं पब्लिक उनसे इम्प्रेस हुए बिना नहीं रह पाती ....खाकी वर्दी पहने हुए दबंग के रूप में उन्हें अपना नया नायक मिल गया है। फिल्म की हेरोइन सोनाक्षी के बारें में क्या कहें,उन्होंने बॉलीवुड को नई संभावनाएं दे दीं हैं.....अपनी पहली फिल्म में ही परिपक्व अभिनय करके ये बता दिया है कि एक्टिंग उनके खून में हैं जो उन्हें विरासत में मिली है। अभिनय और खूबसूरती का अनूठा संगम हैं सोनाक्षी.....इसके आलावा अरबाज़ भी मक्खी के किरदार में खूब जमे हैं,,,,महेश मांजरेकर ने शराबी का छोटा सा रोल निभा के ये बता दिया कि एक्टिंग के वो एक मंझे हुए खिलाडी हैं......सोनू सूद के रूप में बॉलीवुड को अपना नया विलेन मिला है। जिनसे विलेन के किरदार की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. पूरे बॉलीवुड मसाले के साथ तैयार की गए गई फिल्म कुलमिलाकर फुल-टू पैसा वसूल है। चुलबुल पाण्डेय का जादू चल गया.....और फिल्म हो गई सुपर-डुपर हिट....वो भी दबंगई के साथ......
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 9 September 2010

जब मैंने पहली बार बिग बी को देखा.......


पत्रकारिता ने हमेशा से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित किया और मैंने एक पत्रकार बनने का सपना अपनी आँखों में सजायाबस अपने इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने एम.जे.पी रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली में पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला ले लिया। बात वर्ष २००१ की है। पत्रकार बनने का जुनून सर पे इस कदर सवार था कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए बस पत्रकार बनना है।पत्रकारिता की कक्षाएं शुरू होने के बाद हमें असाइनमेंट मिलने लगे थे और हम पूरे जोश व उत्साह के साथ इस काम को पूरा करने में जुट जाते थे। शुरुवात में तो हमें छोटे-छोटे असाइनमेंट दिए गए जिन्हें हमने समय से पूरा करके अपने एच.ओ.डी की नजरों में एक खास जगह बना ली थी ,अपनी इसी छवि के कारण हमें एक दिन वो असाइनमेंट मिला जिसका इंतजार हर उस फ्रेशर को होता है जो अपने कैरिएर की शुरुवात करने जा रहा हो-----------हमें काम मिला रामपुर में होने वाली श्री अमिताभ बच्चन की रैली को कवर करने का और इसके लिए तीन लोगों का ग्रुप बना दिया गया। मैं,मेरा सहपाठी मुकुल सक्सेना और दीक्षा। हम तीनो को ही रामपुर रवाना होना था लेकिन ऐन वक़्त पर दीक्षा का जाना कैंसिल हो गया,एक बार को तो ऐसा लगा कि शायद हम भी नहीं जा पाएंगे लेकिन हमने तो ठान लिया था कि जाना तो जरूर है। रिपोर्टिंग के लिए एक बार को न सही पर बिग बी को तो हर हाल में देखना ही था। फिर ऐसा मौका हमें दोबारा कहाँ मिलता??????????ये दिसम्बर की बात है ,,,सर्दिओं के दिन थे इसलिए निकलते-निकलते ही हमें देर हो गई। बरेली से रामपुर की दूरी ६५ किमी है।
जब तक हम वहां पहुंचे रज़ा कॉलेज रैली का मैदान खचा-खच भर चुका था पैर तो क्या तिल रखने भर को जगह नहीं थी। जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए हम प्रेस गैलरी तक पहुंचे ,यहाँ तक पहुँचने में बैरीकेटिंग को पार करते समय मेरे घुटने में भयंकर चोट लग गई थी,उसमे से खून रिस रहा था।लेकिन बिग बी को देखने व सुनने के लिए ये कीमत बहुत कम थी। प्रेस गैलरी में मीडिया कर्मिओं का जमावड़ा लगा था। भीड़ अमिताभ बच्चन जिंदाबाद के नारे लगा रही थी.......श्री बच्चन अपने निर्धारित समय से करीब २ घंटे देरी से पहुंचे।मंच के ठीक पीछे ही हैलीपैड बनाया गया था....जिस पर देखते ही देखते धूल उडाता हुआ हैलीकॉप्टर उतरा और फिर उसमे से नीला सूट पहने उतरे श्री अमिताभ बच्चन....... जिन्हें देखते ही बस ऑंखें ठहर सी गई और सारी तकलीफें भी ख़तम हो गई......बिग बी हमसे कोई दस कदम की दूरी पर थे.....कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि बिग को देखने या उनसे कोई सवाल करने का मौका भी मिलेगा....बिग बी आए मंच पर और उनके साथ थी जया बच्चन ,अमर सिंह और मुलायम सिंह और आज़म खान । जब बिग बी ने बोंला शुरू किया तो बस तालियों की गडगडाहट ही सुनाई दी.....क्या बोलतें हैं बिग बी......धारा प्रवाह हिंदी......भाषा पर ऐसा नियंत्रण ऐसा कि अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाए.....करीब आधा घंटा मंच पर बिताने के बाद जब उन्होंने वापस हैलीपैड की ओर रुख किया तो रास्तें में मीडिया वालों ने उन्हें रोक लिया जो कि बहुत स्वाभाविक था। हम सब इतनी देर से इंतजार जो कर रहे थे.....बिग बी के रुकते ही मीडिया ने उन पर सवालों की बौछार कर दी...इन्ही सवालों के बीच एक सवाल मैंने भी कर ही डाला जिसके लिए मैंने खुद को तैयार नहीं किया बस सहसा ही मुंह से निकल गया कि..... गाँधी परिवार से इतनी दूरी क्यों????इस पर उन्होंने भी तपाक से बोल दिया कि वक़्त-वक़्त की बात है....मुझे मेरा जवाब मिल गया था......मेरे लिए बस इतना ही काफी था, इसके बाद और कुछ पूछा ही नहीं गया और किसी और ने क्या पूछा ये भी याद नहीं.....मीडिया के सवालों के जवाब सभी ने दिए...इसके बाद सब एक-एक करके हैलीकॉप्टर की ओर बढ़ गए....और धूल के गुबार के साथ पलक झपकते ही गायब हो गए.....एक नायब व्यक्तित्व के मालिक हैं बिग बी....उनके जैसा कोई न तो है और न ही हो सकता है।
मेरे जीवन का ये सबसे सुखद संस्मरण है...जिसे आप सब से बाँट कर जो अनुभूति मुझे मिल रही है उसका तो कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता।उसके बाद मैं और मुकुल दोनों देर रात बस का सफ़र करके बरेली पहुंचे....अगर हम अपने कुछ साथ लाये थे तो वो थी... बिग बी... की छवि और उस रैली का अविस्मर्णीय अनुभव .......
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 2 September 2010

खुले आम सजता..देह का बाज़ार......


शाम हुई सज गए......... कोठों के बाज़ार,
मन का गाहक न मिला बिका बदन सौ बार।
ये शेर मैंने एक बार किसी कवि सम्मलेन में सुना था,जिसमे मुझे कई नामचीन कविओं और शायरों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। शेर तो याद रहा लेकिन कवि नाम याद नहीं...खैर इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता...इसका मतलब समझने की जरुरत है कि कितनी गहरी बात छुपी है इस शेर में.....उस insan की पीड़ा छुपी है जिसे अपना बदन बेचने जैसा घिनौना काम करना पड़ता है.....कहने को तो लिखने के लिए ये कोई नया मुद्दा नहीं है पर फिर भी ये वो मुद्दा है जिसपर,लिखना जरूरी है और लगातार लिखा भी जाना चाहिए। मानवीय संवेदनाओं के चलते कुछ सामाजिक समस्याओं के प्रति हम उतने गंभीर नहीं होते जितना हमें होना चाहिए बस यही सोच कर रह जातें हैं कि अरे....इसपर तो कई बार और बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन अपने दायित्व से पीछे न हटते हुए आज उस विषय पर कलम चलाने की सोची जो एक लड़की होने के नाते भी मुझे लिखने पर मजबूर करता है। मेरा ये लेख समर्पित है उन लड़किओं और महिलाओं के नाम जो अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए उस दल-दल में घुसने को मजबूर हो जाती हैं जिसे समाज ने वैश्यावृति का नाम दिया है।वैश्यावृति हमारे लिए कोई नयी चीज़ नहीं है ये कई सौ साल पहले भी होती थी और आज भी होती है ....वेश्यालयों को संरक्षण तब भी मिलता था और आज भी मिलता है.......इससे आने वाली सड़ांध पूरे समाज को दूषित करती है ये जानते तो सब हैं पर मानता कोई नहीं ......पर न मानने से सच झूठ में तो नहीं बदला करता ....
हर शहर में एक ऐसी बदनाम जगह जरूर होती है जिसे इस सभ्य समाज ने रेड लाइट एरिया का नाम दिया है। यहाँ शाम होते ही सज जाती है बेजान जिस्मो की मंडी,,,बेजान इस लिए कहा क्योंकि जान तो है पर आत्मा नहीं है,जिस काम को करने में आत्मा साथ न दे उसे और क्या कहा जाएगा??????अभी कुछ दिन पहले ही हमारे मेरठ शहर में यहाँ के रेड लाइट एरिया से पुलिस ने छापा मारकर करीब सात नेपाली लड़किओं को इस दल-दल से बाहर निकाला यहाँ से बरामद सभी लड़कियां नाबालिग थी और सभी की उम्र १६-१७ साल से जयादा नहीं थी। इन सभी लड़किओं को नेपाल से भारत काम दिलाने के बहाने से बहला-फुसलाकर लाया गया था। ये सब लड़कियां गरीब घरों की थी जिन्हें काम की बेहद जरुरत थी और इनकी इसी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर,,,,जिस्म के दलालों ने इनकी इज्ज़त का सौदा करके ,इन्हें ये नरक भोगने के लिए छोड़ दिया। जहाँ हवस के भूखे भेड़िये इनके जिस्म को दिन रात नोचतें हैं। दलालों की इस मंडी में सब कुछ बिकता है......जिस्म के साथ आत्मा,इंसानियत ,भावनाएं ।इस दुनिया में सब कुछ बिकाऊ है, इसलिए इन सब के खरीदार मिल जायेंगे आपको। किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि कोई इस घिनौने काम को क्यों कर रहा है बस अपना मतलब निकलना चाहिए। अब क्या होगा इन लड़किओं का,,,क्या ये समाज में सर उठा कर जी पाएंगी....क्या इनके घर वाले इन्हें अपनाएंगे??कौन तो इन्हें काम देगा??कौन इनका हाथ थामेगा????एक बड़ा सवाल हम सब के लिए.........
मुझे नहीं नहीं लगता की कोई भी औरत शौकिया इस काम को करती होगी ,किसी भी औरत को खुद को धंधेवाली कहलवाना पसंद होगा....इससे बड़ा दाग तो उसके लिए हो ही नहीं सकता। अपने घर-परिवार को पालने,अपने बच्चों को दो वक़्त की रोटी खिलाने के लिए उसे इस कीचड में उतरना ही पड़ता है। कोई भी माँ अपने बच्चे को भूख से बिलखते हुए नहीं देख सकती जब उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचता तो अंत में उसे अपना जिस्म ही याद आता है,कि इसे ही बेच कर ही अपने बच्चे या घरवालों का पेट भर सके। क्यों??? आखिर???क्यों.... हम अपने को सभ्य कैसे कह सकते हैं जब हम किसी की मजबूरी का फ़ायदा उठा कर उससे वो काम कराएँ जिसे इस सभ्य समाज में सबसे ख़राब नजरों से देखा जाता है। न जाने कितनी मासूम लड़किओं को रोजाना इस दल-दल में धकेल दिया जाता है इनमे से शायद ही कोई खुशनसीब लड़की होती होगी जिसे इस नरक से समय रहते मुक्ति मिल जाए। पर मुक्ति मिलने से भी क्या होगा??????????????क्या ये समाज इन्हें वही इज्ज़त देगा जो इन्हें मिलनी चाहिए?????????????एक गंभीर सवाल पूरे समाज के लिए....???????
जो महिला इस गंदगी से बाहर निकलना चाहती है....क्या उसके पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए......क्या इस समाज में इनके लिए कोई जगह नहीं है।इनके मासूम बच्चों को इस गंदगी से निकालना क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं है??हम क्या दे सकतें हैं इन्हें....इन सब के उत्तर हमे खोजने हैं अभी....लेकिन जल्द और समय रहते।
पूजा सिंह आदर्श

Saturday 28 August 2010

ईव टीजिंग.....महिलाओं के लिए अभिशाप


हमारे देश में जितनी मुश्किलों और तकलीफों का सामना महिलाओं को करना पड़ता है उतना शायद ही किसी और को करना पड़ता होगा....हर कदम पर कठिनाइयाँ और हर मोड़ पे चुनौतियाँ तैयार रहती है इनका इम्तिहान लेने के लिए।हमारे समाज में जहाँ लड़किओं के लिए समस्याओं का अम्बार लगा है.......उन्ही समस्याओं में से एक है ईव टीजिंग यानि छेड़खानी.....ये वो समस्या या यूँ कहे कि लड़किओं के लिए वो अभिशाप है जिससे लड़किओं को तकरीबन रोज़ ही दो-चार होना पड़ता है। शायद ही कोई ऐसी लड़की या महिला होगी जिसे इस शर्मिंदगी से न गुजरना पड़ा हो। हमारे देश और समाज में ऐसे मनचलों की कोई कमी नहीं है जो लड़किओं को अपनी निजी संपत्ति समझतें हैं। स्कूल- कालेज या सिनेमा के जब छूटने का समय होता है तब देखिये कि शोहदों का कैसा जमावड़ा लगता है बाहर.....लड़किओं को तो ऐसे घूरते हैं कि जैसे वो इनके बाप की जागीर हैं,अश्लील कमेन्ट पास करना,सीटी मारना,आँख मारना,लड़किओं का पीछा करना,उनका रास्ता रोकना जैसे दुष्कर्मों का तो जैसे इन शोहदों को लाइसेन्स मिला हुआ है और वो भी माँ-बाप ने दे रखा है कि जाओ....छेड़ो लड़किओं को.....कोई तुम्हे रोकने-टोकने वाला नहीं है। जितनी बेखौफी से ये लोग लड़किओं को छेड़ते हैं उसे देखकर तो यही लगता है कि घरवालों ने नहीं बल्कि सरकार ने ही इन्हें इजाज़त दे रखी है। महिलाओं के साथ पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह शर्मनाक बर्ताव कभी-कभी इतना भयानक होता है कि इससे तंग आकार लड़कियां खुदखुशी तक कर लेती हैं। उन्हें इस कठोर निर्णय तक पहुँचाने के लिए कौन जिम्मेदार है?
कोई यह नहीं देखता या सोचता कि लड़की ने ऐसा क्यों किया होगा? उल्टा उस पर ही आक्षेप लगा देतें हैं कि लड़की का ही चाल-चलन ठीक नहीं होगा तभी उसने ऐसा किया लेकिन सच्चाई जानने की तो कोई कोशिश भी नहीं करता। और कोई करे भी तो क्यों??????इस समाज के ठेकेदार ही हैं...मर्द....अपने को मर्द तो बड़ी शान से कहतें हैं पर कर्म तो चूहों जैसा करतें हैं..........अब आप ही बताइए कि किसी भी लड़की को छेड़ के बाइक या साईकिल पर भाग जाना कहाँ की मर्दानगी है.....अगर वास्तव में मर्द के बच्चे हो तो वही रुक कर दिखाओ....अगर लड़कियां तुम्हे छठी का दूध का न याद दिला दें तो मेरा नाम बदल देना .....किसी को अश्लील बात कहकर भाग जाने से बड़ा बुझदिली का काम कोई नहीं है।
लड़किओं के साथ छेड़खानी बहुत ही आम बात हो गई है....पुलिस और प्रशासन चाहे कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन इस समस्या से छुटकारा मिलना तो दूर की बात है, ये समस्या कम तक नहीं हुई है।महिला पुलिस को सादे कपड़ों में स्कूल-कालेज और सिनेमाओं के बाहर तैनात कर के तथा ऑपरेशन दीदी भी चला कर देख लिया पर नतीजा सिफर ही निकला। अब इस मुसीबत से कैसे निपटा जाए या इन मनचलों को कैसे सबक सिखाया जाए.....मुझे तो इस का एक ही हल दिखाई देता है कि हर लड़की अपनी सुरक्षा खुद करे और अपनी पुलिस खुद बने। अपने को शारीरिक व मानसिक दोनों तरह से मजबूत बनाये और जब कोई मनचला उसे छेड़ने कि जुर्रत करे तो चुप-चाप सहने की बजाय उसका मुंहतोड़ जवाब दे। अभी तक ये शोहदे यही समझतें हैं कि इन लड़किओं के बसकी कुछ नहीं है, ये तुम्हारी हर बदतमीजी बिना कोई विरोध किए सहती रहेंगी क्योकि लड़कियां इनकी प्राइवेट प्रोपर्टी हैं। लेकिन अब इन्हें भी यह याद दिलाना जरूरी है कि इनके घरों में भी माँ-बहने हैं और किसी दूसरे की बहन -बेटियों को छेड़ने से पहले दस बार सोचो।लड़कियां न तो शारीरिक रूप से कमजोर हैं और न ही मानसिक रूप से ये बात इन मनचलों को समझानी होगी....ऐसे नहीं तो वैसे.....बस चुप रहने की बजाय उसका सामना करना होगा....क्योंकि ये महिलाओं के सम्मान की लड़ाई है और अपने सम्मान की रक्षा करने का सबको अधिकार है। जो महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंचाएगा उसे उसका परिणाम भी भुगतना होगा।
पूजा सिंह आदर्श

Tuesday 17 August 2010

क्या हम वाकई आज़ाद है...यही मायने हैं आज़ादी के?????



अभी दो दिन पहले ही हमने अपनी आज़ादी की ६३वीं सालगिरह मनाई है, इस मौके पर देश के सर्वश्रेष्ठ लोगों ने अपनी तमाम उपलब्धियां भी गिनवा दी कि अब तक हमारे देश को इन लोगों ने क्या दिया है और देश ने कितनी तरक्की की है............अब इन लोगों के इस दमदार दावे में कितना दम हैं इस पर एक बड़ा सवालिया निशान है????क्या हम आज भी सच में आज़ाद हैं और खुली आज़ाद हवा में सांस ले रहे हैं????ये एक विचारणीय प्रश्न है........क्या सिर्फ अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पा लेने को ही आज़ादी कहते हैं?जिन लोगों के संघर्ष ने हमें उस नरक से बाहर निकाला जिनके अमूल्य बलिदान की बदौलत ही हम आज अपने वजूद को कायम रखे हुए हैं क्या वाकई में हम उनके प्रति सच्ची श्रधांजलि अर्पित करते हैं या उनको याद करने का ढोंग मात्र करतें हैं।हम कितना भी चिल्ला-चिल्ला के यह कह लें की हम आज़ाद हैं और देश तरक्की कर रहा है,हम उन्नति की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहें हैं लेकिन सच वही है ...ढ़ाक के तीन पात......
केवल कह देने भर से या प्रगति का ढोल बजाने से ये सच हो जाएगा कि जैसा सपनो का भारत हमारे पूर्वजों ने सोचा था क्या ये भारत वैसा ही है ?.....नेहरु,गाँधी,शास्त्री,सुभाष के देश की क्या हालत हो गई है। अगर हमारे देश के कर्ता-धर्ता ये सोचते हैं कि हमारे देश में तो सब ठीक चल रहा है और सब आज़ादी का जश्न मन रहें हैं तो ये सरासर गलत सोचतें हैं और बहुत बड़ी गलत फहमी का शिकार हैं। जिस देश में आज भी लोग अशिक्षित हैं,बेरोजगार हैं,अन्धविश्वासी हैं.रुढ़िवादी हैं,जहाँ आज भी लोगों को पीने का पानी नहीं मिलता,बिजली नहीं मिलती,यहाँ तक की बुनियादी सुविधा रोटी-कपडा और मकान नहीं मिलता,जहाँ आज भी बहुत से लोगों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं होती, दवा और इलाज के अभाव में लोग तड़प-तड़प के मर जातें हैं।भ्रष्टाचार की जड़ें अब इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकने में शायद बरसो लग जाएँ।देश के आम नागरिक को सुरक्षा के नाम पर क्या मिला है बम के धमाके और ताबड़तोड़ चलती गोलियों की आवाज़.....जिस देश में देश का आधार और आधी आबादी कही जाने वाली महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं,जो अकेले बेख़ौफ़ कहीं आ ,जा नहीं सकतीं,उनकी इज्ज़त पे दाग लगाने के लिए भेड़िये खुले आम घूमते हों। इतना सब हो जाने के बाद भी क्या हम आज़ाद हैं?,,,,,राधा-कृष्ण ,हीर राँझा के देश में दो प्यार करने वालों को नफरत की बलि चढ़ा दिया जाता है सिर्फ अपनी झूठी और दो कौड़ी की इज्ज़त के लिए। ये इज्ज़त तब कहाँ चली जाती है जब पडोसी दुश्मन अपनी धरती माँ की इज्ज़त पर हाथ डालता है।
बेटों की लालसा में हम अजन्मी बेटिओं को निर्दयता से मार रहें हैं और अपने आप को गर्व से आज़ाद कहतें हैं। जिस देश में कई हज़ार लोग सिर्फ एक वक़्त खाना खातें हों और भूखे पेट सोना जिनकी मजबूरी हो,गरीबी जिनका नसीब है ऐसे में क्या हमे आज़ादी का जश्न मानना चाहिए????गहराई से आत्मचिंतन करिए और फिर बताइए की क्या मैंने कुछ गलत कहा है......जो मेरे इन सवालों को गलत ठैरा दे उसके लिए ये खुली चुनौती है कि वो इन सारे प्रश्नों का तर्क सहित उत्तर दे......अगर कोई यह कहता है कि नहीं आपके ये सारे तर्क गलत हैं और देश वाकई तरक्की कर रहा है और हम स्वतंत्र हैं तो मेरी नजरों में उससे बड़ा देशद्रोही कोई नहीं.....अब बदसूरत शक्ल आईने में बदसूरत ही दिखेगी और अगर कोई ये कहे कि नहीं सुंदर दिख रही है तो.... दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.....सिर्फ भाषण देने भर से देश तरक्की नहीं करता। आज़ादी मिले गरीबी से,भुखमरी से,भ्रष्टाचार से अशिक्षा से,रूढ़िवादिता से तभी तो हम आज़ाद होने का दवा कर सकतें हैं।
जिन लोगों ने इस देश को अपने खून से सींचा,उस देश के लोग अब इसका खून चूस रहें हैं। जिस तरह भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंकते समय यह कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है उसी प्रकार आज जब हम बहरे होकर अपने कानो पे हाथ रख कर बैठे हैं, हमें भी झकझोरने के लिए किसी धमाके की ही जरुरत है।जब तक हमारी अंतर-आत्मा साफ़ नहीं हो जाती और हम आज़ादी के सही मायने नहीं समझते तब तक हमें आज़ादी का जश्न मनाने का कोई हक नहीं है।


Tuesday 3 August 2010

कांवड़ यात्रा.......पुण्य या पाप.....


सावन का महीना आते ही पूरा माहौल शिवमय हो जाता है.....अगर कुछ सुनाई देता है तो वो है हर-हर महादेव की गूँजवैसे तो भगवान भोले नाथ पूरे भारत वर्ष में बारह महीने ही पूजे जातें हैं लेकिन सावन में इनका महत्व कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। कुंवारी लड़किओं से लेकर बुजुर्ग तक सब सावन के महीने में भगवान शिव को प्रसन्न करने में लीन रहतें हैं।कुछ लोग सिर्फ सावन के सोमवार को ही जल चढ़ाते हैं और कुछ लोग पूरे सावन ही शिवालयों में जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करतें हैं।सावन लगते ही अगर कुछ विशेष होता दिखाई देता है तो वह है कांवड़ यात्रा। कांवड़ लाने के लिए शिव के भक्त पूरे साल इंतजार करतें हैं कि कब वो हरिद्वार के लिए प्रस्थान करेंगे और कठिन यात्रा को पैदल पार करके भगवान भोले नाथ पर चढाने के लिए जल लेकर आएंगे। कुछ लोग तो गंगोत्री तक से भी जल लेकर आतें हैं। प्.उत्तर प्रदेश समित दिल्ली,हरियाणा,राजस्थान तक में कांवड़ लाने का प्रचलन है।इस समय कांवड़ यात्रा शुरू हो चुकी हैं और अपनी चरम सीमा पर चल रही है और आठ अगस्त को पड़ने वाली सावन की शिवरात्रि को भोले नाथ के जलाभिषेक के साथ ही समाप्त होगी। शिवरात्रि से एक दिन पहले ही लाखों श्रद्धालु अपने मुकाम पर पहुँच जातें हैं।
ऐसा नहीं है कि कांवड़ यात्रा कोई नयी बात है यह सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है फर्क बस इतना है कि पहले इक्का-दुक्का शिव भक्त ही कांवड़ में जल लाने की हिम्मत जुटा पाते थे लेकिन पिछले ५-७ सालों में ऐसा क्या हुआ कि हर साल जल लाने के लिए शिव भक्तों कि संख्या बढती ही जा रही है। इक्का-दुक्का से सैंकड़ों फिर हजारों और अब लाखों,साल दर साल कांवड़ लाने वालों की तादात बढती ही जा रही है। क्या इस कलयुग में भगवान को प्रसन्न करने और पुण्य कमाने का यही एक तरीका रह गया है??????............कांवड़ यात्रा को सफल और सुरक्षित बनाने के लिए भारी तादात में पुलिस और प्रशासन लगा हुआ है। लाखों की संख्या में पहुँचने वाले श्रधालुओं की सुरक्षा प्रशासन के लिए चुनौती बनी हुई है।
कांवड़ लाने वालों की संख्या प्रति वर्ष जिस रफ़्तार से बढ़ रही है वो एक सोचनीय विषय है ये वाकई पुण्य कमाने का जरिया है या फिर कुछ और........कही कांवड़ लाने की आड़ में कोई और धंधा तो नहीं चल रहा। हर साल नारकोटिक्स विभाग की नजर रहती है कांवड़ लाने वालों पर। सबको पता है कि कांवड़ की आड़ में हर साल करोड़ों रूपये के नशे का कारोबार होता है। कांवड़ में छुपा कर अफीम,भांग,चरस की तस्करी की जाती है। हथियार भी छुपा कर इधर से उधर किए जाते है। कांवड़ के बहाने ये कारोबार खूब फल-फूल रहा है। जानते सब हैं पर मजाल है कि कोई कांवड़ को हाथ भी लगा दे,चेक करना तो दूर की बात है। धर्म की आड़ लेकर खुले-आम गलत काम होता है पर हम कुछ नहीं कर सकते क्योंकि आस्था सब पे भारी होती है।धर्म के नाम पर कुछ भी आसानी से किया जा सकता है ये हमारे देश की खासियत है। धर्म के नाम पर हम किसी को भी और कहीं भी बेवक़ूफ़ बना सकतें हैं इसका जीवंत उदाहरण है कांवड़ यात्रा। अब इसमें एक नयी बात और जुड़ गई है और वो हैं.....महिलाएं.......पहले इनका कांवड़ यात्रा से दूर-दूर तक कोई तक कोई वास्ता नहीं होता था,लेकिन अब महिलाएं भी पीछे नहीं है कांवड़ लाने में। जब महिलाएं जाएँगी तो लाज़मी है कि बच्चे भी जायेंगे। महिलाओं और बच्चों की आड़ में भी ये धंधा जोरों पर चलता है। ये काम करने वालों को पता है की महिलाओं को हाथ लगाने वालों की क्या दशा होगी, बस इसी बात का ये लोग फ़ायदा उठाते हैं। अगर कांवड़ जरा सी भी खंडित हो जाए तो बवाल होते भी देर नहीं लगती,श्रद्धालु आगजनी,पथराव और मारपीट करने में जरा भी देर नहीं लगाते। कहने का मतलब ये है कि कांवड़ की आड़ में जो लोग ये धंधा कर रहें हैं उनको प्रशासन खुद ही बढ़ावा दे रहा है,इनको रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है।
गलत काम जो हो रहा है वो तो है ही लेकिन कांवड़ यात्रा से पर्यावरण को जो भारी नुकसान होता है उसका जिम्मेदार कौन है?????हर साल लाखों श्रद्धालु जल लेने हरिद्वार पहुंचतें हैं। इतने लोगों के कारण गंगा तो मैली होती है पूरा वातावरण भी दूषित हो जाता है। जगह-जगह कैंप लगने के कारण झूठे पत्तलों के ढेर,खुले में मल-मूत्र करने के कारण फैलने वाली दुर्गन्ध से आम लोगों का जीना दूभर हो जाता है,किन्तु इन सब के बारें में कौन सोचता है। फिर वही बात आ जाती है कि आस्था सब पर भारी है....धर्म की आड़ में गलत काम हमेशा से ही होता आया है ये कोई नयी बात तो है नहीं.....लेकिन लोगों को ये तो सोचना ही चाहिए कि कम से कम धर्म की आड़ में तो ये सब न करें.....पुण्य कमाने के तो और भी बहुत से तरीके हैं....पुण्य ही कमाना है तो देश और समाज की सेवा करके ही कमा लो तो वास्तव में पुण्य ही मिलेगा........
पूजा सिंह आदर्श

Monday 2 August 2010

सनकी हैं क्या राहुल महाजन....????


राहुल महाजन एक बार फिर सुर्ख़ियों में हैं.........इस बार फिर उनके साथ एक और नया विवाद जुड़ गया है....वैसे ये उनके लिए नया बिल्कुल नहीं है इससे पहले भी वो इसी प्रकार के विवाद का हिस्सा रह चुके हैं।क्या राहुल महाजन घरेलू हिंसा के आदि हो चुकें हैं......इस बार भी उन्होंने अपनी पहली पत्नी श्वेता की तरह,अपनी नई पत्नी डिम्पी महाजन के साथ मारपीट की। डिम्पी ने पूरी मीडिया के सामने खुद बताया कि राहुल उनके साथ मारपीट करतें हैं,एक बार तो किसी मामूली सी बात पर उन्होंने उनपर बन्दूक तान दी थी...जब इस बात की शिकायत उन्होंने अपनी सास यानि राहुल की माँ से की तो राहुल ने उन्हें इस बात पर भी मारा था और मारना भी कोई ऐसा-वैसा नहीं राहुल ने डिम्पी को लात-घूंसों से मारा और उनके बाल पकड़कर खींचे.......अब चाहे राहुल डिम्पी से कितनी भी सुलह कर लें,मनाकर उन्हें अपने घर भी ले जाएँ या फिर डिम्पी भी उन्हें माफ़ कर दें पर राहुल की असलियत तो जगजाहिर हो ही गई है कि राहुल किस किस्म के इंसान है।
अब सवाल ये उठता है कि क्या ये सब करना राहुल महाजन को शोभा देता है???????ये राहुल महाजन के नाम के आगे एक बड़ा सवालिया निशान है कि जो महाजन नाम उनके साथ जुड़ा हुआ है क्या कभी उसके बारें में राहुल नहीं सोचते.......प्रमोद महाजन कि मौत के बाद ही दुनिया ने जाना कि राहुल महाजन कौन है?प्रमोद जी अगर जिन्दा होते तो ये दुनिया शायद जान भी न पाती कि राहुल महाजन कौन है और एक तरह से ये अच्छा भी होता। प्रमोद महाजन जानते थे अपने बेटे के बारे में ............कौन बाप नहीं जानता होगा कि उसका बेटा कैसा है वो उसका नाम रोशन करेगा या नाम पर धब्बा लगाएगा। पिता की मौत के तुरंत बाद ही नशे की हालत में मिलना और नशे के ओवर डोज के कारण अस्पताल में भर्ती होना फिर अचानक ही अपने बचपन की दोस्त श्वेता सिंह से शादी कर लेना और कुछ दिन बाद ही उसके साथ मारपीट करना इसके बाद श्वेता का राहुल का घर छोड़ कर उनसे तलाक लेकर हमेशा के लिए उनके घर को अलविदा कह देना। ये सब घटनाक्रम राहुल महाजन की जिंदगी में इतनी तेजी से बदले कि खुद उनको भी इसका अहसास नहीं हुआ। फिर अचानक राहुल महाजन इस उम्मीद को लेकर बिग बॉस में नज़र कि अब वो दुनिया को अपने बारें सही ढंग से बता सकें कि वास्तव में राहुल महाजन क्या हैं लेकिन वहां भी राहुल अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आये,एक तरफ तो पायल रोहतगी से नजदीकीयां बढाई दूसरी तरफ बिग बॉस के घर की दीवार कूद कर भाग गए.....इसका मतलब तो ये हुआ कि राहुल महाजन को विवादों से बेहद प्यार है और विवादों के साथ उनका चोली दामन का साथ है। राहुल की इन सब हरकतों से तो यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो कभी नहीं सुधरेंगे अगर ऐसा न होता तो खुद उनकी बहन पूनम महाजन राव ये कहने कि बजाय कि किसी भी महिला पर हाथ उठाना अपराध है क्योकि हर महिला का अपना आत्मसम्मान होता है यदि कोई इसे ठेस पहुँचाता है तो ये समस्त नारी जाती का अपमान है,अपने भाई का बचाव करती नज़र आती। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया और पहले भी कुछ नहीं किया था क्योकिं वो जानती है कि उनका भाई वास्तव में क्या है?पूनम महाजन और राहुल महाजन में जमीन-आसमान का अंतर है। पूनम ने अपने पिता के नाम को बढ़ाने की कोशिश की है जबकि राहुल ने अपने पिता के कमाए हुए नाम को ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
राहुल महाजन अब चाहे कुछ भी कह लें मगर दुनिया उनका सच जान चुकी है कि वो किस तरह के इन्सान हैं। वो कहतें हैं न कि कुत्ते की दुम को अगर बारह बरस तक भी नलकी में रखा जाए तो भी वो सीधी नहीं हो सकती यही हाल राहुल महाजन का भी है। अच्छा हुआ कि प्रमोद महाजन इस दुनिया में नहीं हैं,नहीं तो उन्हें अपने बेटे की वजह से जो sharmindgi उठानी पड़ती उसकी भरपाई वो शायद ही कर पाते।
पूजा सिंह आदर्श

Friday 16 July 2010

क्या हमें जीने का कोई हक नहीं......क्या हम इन्सान नहीं ???


अपनों से बिछड़ने का दर्द क्या होता है,उसकी पीड़ा क्या होती है ये बताने की शायद जरुरत नहीं हैकिसी अपने से अलग होने का जरा सा ख्याल भी हमें झकझोर के रख देता है। आदमी अगर दुनिया से चला जाए,मौत उसे हमसे छीन ले तो हम उसे विधि का विधान मानकर स्वीकार कर लेते हैं और यदि हम जानबूझ कर किसी अपने को खुद से अलग कर दें,उससे सारे रिश्ते खत्म कर लें,उसे किस्मत के सहारे छोड़ दें। हमें उसे अपना कहते हुए भी शर्मिंदगी महसूस हो,तो क्या हम वाकई उसके अपने हैं और वास्तव में उससे सच्चा प्यार करतें हैं????
लेकिन ये सच है ऐसा भी होता है,मैंने ऐसे लोगो को बहुत नजदीक से देखा है और उनका दर्द भी बहुत शिद्दत से महसूस किया है.......हम बात कर रहें हैं बरेली के मानसिक चिकित्सालय के उन मरीजों की जो ठीक हो जाने बाद भी वहां रहने को मजबूर हैं। घुट-घुट के जीना उनकी नियति बन चुका है। ऊँची-ऊँची दीवारें,दूर-दूर तक पसरी ख़ामोशी ,मानसिक संतुलन खो चुके मरीजों की सन्नाटे को चीर देने वाली आवाज़,बहार की दुनिया से बेखबर,अन्जान। ऐसे माहौल में रहना इनका नसीब बन चुका है क्योंकि इनके परिवार वाले इन्हें ठुकरा चुके हैं। ये लोग भूल चुके हैं कि इनका कोई अपना है जो ठीक हो जाने के बाद इनके साथ अपने घर जाने की राह देख रहा है लेकिन इनकी आँखे अब राह देखते-देखते पथरा चुकी हैं क्योकि इनके अपने अब इनसे बहुत दूर जा चुकें हैं। बरेली के मानसिक अस्पताल में कई ऐसे रोगी हैं जो पूरी तरह से ठीक हो चुकें हैं और घर जा सकतें हैं लेकिन लोग इन्हें यहाँ छोड़ने तो आतें हैं पर लेने कभी नहीं आते। अस्पताल के नियमानुसार जब तक मरीज को उसके घर से कोई लेने न आये उसे छुट्टी नहीं दी जा सकती। ठीक हो चुके मरीजों की तादात इतनी ज्यादा है कि नए मरीजों को भर्ती करने में काफी दिक्कत आती है। पचास साल तक पुराने मरीज यहाँ भर्ती हैं।
अस्पताल में भर्ती करते समय इनके परिवार वाले पता और टेलिफोन नंबर तक गलत लिखा जातें हैं,जब उनसे संपर्क किया जाता हैं तो पता चलता है कि सारी सूचना ही गलत है। चिकित्सालय प्रशासन की लाख कोशिशों के बावजूद भी इनके घर वालों का कोई अता-पता नहीं चल सका। ऐसे में अब क्या किया जाए चूँकि इन्हें यूँ छोड़ा भी नहीं जा सकता इसलिए इन्हें अस्पताल में रखना मजबूरी है। मनोरोग विशेषज्ञ डा.वी.के श्रीवास्तव का कहना है कि अस्पताल में कई ऐसे मरीज हैं जो पूरी तरह से ठीक हो चुके हैं और घर जा सकतें हैं। ये लोग घर जाकर सामान्य जीवन जी सकतें हैं और परिवार का मॉरल सपोर्ट व भरपूर प्यार मिले तो इन्हें किसी भी दवा की भी कोई जरुरत नहीं है किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा कम ही होता है। ऐसे बहुत ही कम मरीज हैं जो ठीक जो जाने के बाद वापस अपने घर जा पातें हैं।
स्तिथि बहुत गंभीर है पुराने ठीक हो चुके मरीजों के कारण नए मरीज भर्ती करने में काफी परेशानी होती है क्योकि मरीज ज्यादा हैं और जगह कम..........कई महिलाएं तो ऐसी हैं जिन्हें उनके ससुराल वाले जबरन ये कहकर भर्ती करा गए कि इनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है जबकि वे बिल्कुल ठीक हैं इन महिलाओं ने रो-रो कर कई बार अपनी व्यथा सुनाई है और अपने घर का पता भी बताया है लेकिन इसके बदले में उन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिला है। उनकी हालात ज्यों की त्यों बनी हुई है और ये महिलाएं यहाँ नरक भोगने को विवश हैं। यदि किसी स्वस्थ आदमी को मानसिक रोगियों के बीच छोड़ दिया जाए तो उसकी क्या दशा होगी इसका अंदाजा लगा पाना उन लोगों के लिए तो आसान है जो मानवता को समझतें है बाकीओं के लिए जरा मुश्किल है।
ठीक हो चुके मरीजों के लिए पुनर्वास एक गंभीर समस्या है क्योकि ठीक हो जाने के बाद भी उनके लिए वहां रहना क्या उचित है?क्या वहां का माहौल उन्हें ठीक रहने देगा?इन सब की परवाह किसे है?कोई इनके बारें में सोचना नहीं चाहता और सोचेगा भी भला क्यों इनमे से कोई उनका अपना नहीं है ना ?जब उनके अपने ही उन्हें भूल चुके हैं तो गैरों से उन्हें कोई शिकवा नहीं है। इन्हें दरकार है उस हाथ की जो आगे बढ़कर इन्हें सहारा दे,इनकी धुंधली पड़ चुकी नजरों को नई रौशनी दे। इसकी पहल करने के लिए किसी ना किसी को तो आगे आना ही होगा फिर चाहे वो स्वयं सेवी संस्था हो या जिला प्रशासन। अस्पताल में ये लोग भले ही कुछ ना कुछ काम करके अपना समय काट लेतें हों पर परिवार के साथ समय बिताना किसे अच्छा नहीं लगता। अपने माँ-बाप,भाई-बहन के साथ जिन्दगी के खूबसूरत लम्हे कौन नहीं बिताना चाहता। जिन्दगी है ही इतनी खूबसूरत कि जीने को हर किसी का मन करता है,इन लोगों का भी तो करता होगा?इंसानियत के नाते इन लोगों के बारें में भी सोचने का फ़र्ज़ बनता है हमारा ।
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday 2 June 2010

धुंए के छल्लो में तबाह होती जिन्दगी.......


जून को विश्व तम्बाकू विरोधी दिवस था,इस उपलक्ष्य में कई कार्यक्रम आयोजित किए गए,कहीं शिविर लगाए गए तो कहीं इसके विरोध में रैली निकाली गई लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि इन सब का क्या और कितना प्रभाव उन लोगों पर पड़ा जो सिगरेट के धुंए में अपनी खूबसूरत और अनमोल जिन्दगी को तबाह कर रहें हैं,शायद कुछ भी नहीं ? .........कुछ पल की मौज-मस्ती,फैशन और दिखावे के लिए क्या ये सब करना जरूरी है?ये सब बातें कहाँ समझ में आती हैं इन लोगों के और न ही ये समझना चाहतें हैं कि ये धीमा जहर धीरे-धीरे इनकी जिंदगी को मौत की तरफ धकेल रहा है। नशे के धुंए में अब तक न जाने कितनी जिन्दगी काल के गाल में समा चुकी हैं।डब्लू.एच.ओ की एक रिपोर्ट आश्चर्यजनक खुलासा करती है कि यदि तम्बाकू का सेवन करने वालों की संख्या यूँ ही लगातार बढती रही तो सन २०३० तक विश्व में हर साल ८० लाख लोग मरेंगे ,जिसमे २५ लाख महिलाएं होंगी।
दुनिया में तम्बाकू लोगों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। १० में से एक वयस्क की मौत तम्बाकू सेवन से होती है। इसके चलते विश्व में हर साल करीब ५० लाख लोगों की मौत हो जाती है। दुनिया के १ अरब धूम्रपान करने वालों में २० करोड़ महिलाएं शामिल हैं। यदि लोग इसी तरह तम्बाकू का सेवन करते रहे तो इससे मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ेगी।अब केवल हल्ला मचाने से तो कुछ नहीं होगा,ठोस कदम भी तो उठाने पड़ेंगे। अगर वक़्त रहते नहीं संभले तो उन बीमारियों को झेलने के लिए तैयार हो जाएँ जिनका कोई इलाज नहीं है और जिनका नाम सुनकर ही पसीना आ जाता है। ऐसा नहीं है कि लोगों को पता नहीं है कि तम्बाकू का इस्तेमाल करने से मुंह का कैंसर,फेफड़ों का कैंसर,गले का कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी हो जाती है पर क्या करें ये लत है ही इतनी बुरी कि इसके आगे कुछ नहीं दिखाई देता ना अपनी सेहत न घर-परिवार वाले कुछ नहीं, बस दिखाई देता है तो ......तम्बाकू,पान मसाला,गुटका.बीडी और सिगरेट.....
मजेदार बात तो ये है कि पुरुषों के साथ महिलाएं भी इसका सेवन करने में पीछे नहीं हैं। विश्व की बात तो छोड़ दें भारत में भी धूम्रपान करने वाली महिलाओं की संख्या में इजाफा हुआ है। इनमे कॉलेज़ जाने वाली और नौकरी पेशा युवतियां ज्यादा हैं। इसका कारण तनाव और काम का दवाब है लेकिन महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि तम्बाकू सेवन में आधुनिक महिलाओं से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं आगे हैं। सरकारी आंकड़ों से यह बात सामने आई है कि शहरी इलाकों में ०.५ फ़ीसदी महिलाएं धूम्रपान करतीं हैं जबकि ग्रामीण इलाकों में २ फ़ीसदी। शहरी महिलाएं करीब ६ फ़ीसदी और ग्रामीण महिलाएं १२ फ़ीसदी धुआं रहित तम्बाकू का सेवन करतीं हैं।ये सत्य वाकई में चिंता जनक है। स्मोकिंग करने वाले को शायद ये नहीं पता होता कि वो अपने साथ-साथ दूसरे को भी नुकसान पहुंचा रहा है यानि जो स्मोकिंग नहीं भी करतें हैं पर इसके स्मोक को झेलने के लिए मजबूर हैं उन्हें भी इससे उतना ही नुकसान पहुंचता है।
हम तो बस चेतावनी ही दे सकतें हैं कि वक़्त रहते संभल जाइये और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इस बुरी और जानलेवा लत से अपना पीछा छुडाएं अन्यथा आप ऊपरवाले की दी हुई अनमोल जिंदगी से हमेशा के लिए हाथ धो बैठेंगे।
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday 26 May 2010

बरेली की पहचान झुमका ........

फिल्म मेरा साया में एक गीत था,झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में,ये गीत इतना मशहूर हुआ कि इसने वास्तव में बरेली को उसकी पहचान दिला दी,अब जिससे भी बरेली का जिक्र करो वो तपाक से कहता है कि अच्छा वो झुमके वाली बरेली.......बरेली को झुमके वाली का ख़िताब यूँ ही नहीं मिल गया?गीतकार ने झुमके को बरेली में ही क्यों गिराया....भोपाल या दिल्ली में क्यों नहीं?इसके पीछे भी एक कहानी है....हुआ यूँ कि प्रख्यात कवि स्व.हरिवंश राय बच्चन अपनी पत्नी तेजी बच्चन के साथ शादी पहले इलाहाबाद से बरेली आये थे और प्रख्यात साहित्यकार निरंकार सेवक जी के यहाँ पर रुके थे,हम कह सकतें हैं कि इन दोनों की दोस्ती को शादी तक पहुँचाने में सेवक जी का ही योगदान है। जब तेजी जी,बच्चन जी के साथ यहाँ आयीं तो दोनों ने एक दूसरे को जानने के लिए काफी वक़्त एक साथ बिताया जो बाद में उनकी शादी का कारण भी बना,यहाँ रहते हुए एक दिन तेजी जी के मुंह से सहसा ही निकल गया कि मेरे तो झुमके ही खो गए बरेली के बाज़ार में.........मतलब कि वो यहाँ आकर अपनी सुध-बुध ही खो बैठी,उनके कान से झुमका गिर गया और उन्हें खबर तक नहीं हुई। धीरे-धीरे यह बात चर्चा में आयी फिर रज़ा मेहदीं अली खान ने इस घटना को अपने बोल दिए,आशा भोंसले ने स्वर दिया और मदन मोहन ने अपना संगीत देकर इस गीत को सदा के लिए अमर कर दिया। तो ये कहानी है बरेली के झुमके के पीछे.........वैसे तो बरेली में और भी बहुत कुछ ऐसा है जो इस शहर की पहचान हो सकता है जैसे विश्व प्रसिद्ध दरगाह-ऐ-आला हज़रत,खानखाहे-नियाजिया,बरेली के पांच कोनो पर विराजमान भगवान् शिव के पांच रूप,धोपेश्वर नाथ,वनखंडीनाथ,मढ़ीनाथ,त्रिवटीनाथ और अलखनाथ इसके आलावा बरेली में कई प्रसिद्ध चर्च हैं जो अपनी सुंदर कला के लिए जाने जातें हैं। बरेली का सुरमा,बरेली का मांजा,पतंग ये भी तो इसकी पहचान हो सकते हैं फिर झुमका ही क्यों?
एक बार एक सज्जन से मेरी बहस हो गई कि आला हज़रत और अलखनाथ के शहर की पहचान भला एक अदना सा झुमका कैसे हो सकता है इस पर मैंने उन्हें जो तर्क दिया उसे सुनकर वह चुप हो गए फिर आगे कुछ नहीं बोल पाए ये हम अपने को श्रेष्ठ और सही साबित करने के लिए नहीं बता रहें हैं बल्कि जो मुझे ठीक लगा वही मैंने उन सज्जन को कहा,कि आला हज़रत हों या फिर अलखनाथ ये सब किसी न किसी मजहब से जुड़े हैं और साम्प्रदायिकता के प्रतीक हैं जबकि झुमका न तो किसी धर्म का है और न ही मज़हब का,ये तो सबका है और किसी का भी हो सकता है, अमीर का,गरीब का,हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख, ईसाई किसी का भी और जो किसी का भी हो सकता हो उसे अपनाने में किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है?
जो सबको प्रिय है वही ईश्वर को भी प्रिय है। इसलिए झुमके से अच्छी पहचान तो बरेली के लिए हो ही नहीं सकती । किसी भी चीज़ के इतिहास बनने के पीछे कुदरत का कोई न कोई मकसद जरूर होता है तभी तो बरेली जैसे सांप्रदायिक और संवेदनशील शहर के लोग इतने अमनपसंद हैंझुमका ही बरेली की असल पहचान है इसमें कोई शक नहीं है और झुमके का वजूद तो कभी मिटा था और कभी मिटेगा ........तभी तो फिल्म मेरा साया में उसे साधना ने गिराया जरूर था लेकिन जा नच ले फिल्म में माधुरी ने उसे उठा भी तो लिया...........इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा कि झुमका ही है बरेली की शान उसकी पहचान...........
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 20 May 2010

वो पापा कहलाने के लायक नहीं........

उसे
मेरा बाप मत कहो,वो हैवान है ,वो पापा कहलाने के लायक नहीं है ,उसने मुझे,अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा,अपनी इज्ज़त बचाने के लिए मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था इसलिए मैंने अपने बाप के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक दिया ,मेरी जगह कोई और लड़की होती तो वो भी यही करती,मुझे अपने किए का कोई अफ़सोस नहीं है,मैंने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए अपने बाप के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक दिया और अब मैं खुद ही थाने आ गई हूँ आप जो चाहे मुझे सजा दे दो। ये शब्द हैं मेरठ के लिसाड़ी गेट की रहने वाली सोलह साल की सलमा के जो अपने ही बाप की बदनीयती का शिकार होते-होते बच गई। पुलिस ने युवती के बयान दर्ज कराये हैं और उसके बाप को प्रथमद्रष्टया में दोषी मानते हुए हिरासत में लेने के लिए हॉस्पिटल में पुलिस तैनात की है क्योकि सलमा का बाप जावेद तेज़ाब गिरने के कारण चालीस फीसदी तक झुलस गया है। खैर यहाँ मेरा मकसद कोई न्यूज़ देना नहीं हैं उसके लिए तो अख़बार ही काफी है.........इस घटना के जरिये हम ये बताना चाहते हैं कि हम लड़कियों के जीवन में दो ही रिश्ते सबसे ज्यादा विश्वासपूर्ण होतें हैं एक पिता और दूसरा भाई,इनके आलावा हम किसी पर भी जल्दी भरोसा नहीं करते और ना ही कर सकतें हैं लेकिन यदि रक्षक ही भक्षक बन जाए तो क्या विकल्प बचता है हमारे सामने यही न कि हम भी अपनी पूरी शक्ति के साथ अपनी इज्ज़त की रक्षा करें जैसा की सलमा ने किया। ऐसा ये पहला मामला नहीं है कि किसी बाप ने अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा हो,ऐसा बुहत बार हो चुका है। बाप के आलावा कई लड़कियन अपने सगे भाइयों तक की हवस का शिकार बन चुकी हैं।इसके आलावा बलात्कार के ऐसे कई मामले जो इज्ज़त की खातिर खुल ही नहीं पातें हैं,मामा,चाचा,ममेरे,चचेरे,फुफेरे भाई अपनी बहन-बेटियों की इज्ज़त ख़राब कर देतें हैं और लड़की के घर वाले अपनी झूठी इज्ज़त बचाने के लिए उन लोगों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाते,यूनिसेफ की एक रिपोर्ट ये खुलासा करती है कि लड़कियां बाहर वालों की अपेक्षा घरवालों की हैवानियत का शिकार ज्यादा बनती हैं क्योंकि भेडिये तो उनके घर में ही छुपे बैठे हैं।
सवाल ये उठता है कि अपनों से ही अपनों की रक्षा कैसे की जाए? इंसान जानवर हो चुका है कि उसे लड़कियों और महिलाओं में सिर्फ हवस की पिपासा को शांत करने का साधन ही नज़र आता है। बहन-बेटी चाहे किसी की भी क्यों न हो इज्ज़त सबके लिए बराबर होती है और उतनी ही मायने रखती है। ऐसा नहीं होता कि आप सिर्फ अपनी बहन-बेटी को तो बचा कर रखें और दूसरों की बहन-बेटी को गन्दी निगाहों से ताकें।ऐसे मामलों में कोई कुछ नहीं कर सकता ना कोई रिश्तेदार न पुलिस अगर कुछ कर सकतीं हैं तो वो हैं खुद लड़कियां,जैसा की सलमा ने किया उसने अपने हैवान बाप के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि हिम्मत से उसका मुकाबला किया। दाद देनी पड़ेगी लड़की की हिम्मत की अगर सभी लड़कियों में अपनी आत्मरक्षा करने की हिम्मत आ जाए तो कोई दरिंदा ऐसे गन्दी हरकत अपनी तो क्या दूसरे की बेटी के साथ भी करने की हिमाकत नहीं करेगा। और ऐसा भी नहीं है की उसके पुलिस या कानून उसकी मदद नहीं करेंगे,जरूर करेंगे जैसी सलमा की की है। जिसने भी इस घिनौनी हरकत के बारे में सुना उसने ही बोला कि ऐसे बाप को तो बीच चौराहे पर फाँसी दे देनी चाहिए,जो अपनी ही बेटी की इज्ज़त नहीं कर सकता वो दूसरों की बेटी की क्या करेगा?ऐसा इन्सान समाज में रहने लायक नहीं है और न ही उसे खुले भेडिये की तरह शिकार करने के लिए छोड़ देना चाहिए। रिश्तों को कलंकित वाले के लिए इस सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है ।
सामाजिक व नैतिक मूल्यों का इतना पतन हो चुका है कि बस किसी पर भी आँख बंद करके तो बिल्कुल भी भरोसा नहीं किया जा सकता रही बात लड़कियों की तो उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से मजबूत बनना होगा तभी काम चलेगा वरना हवस के ये भूखे भेडिये लड़कियों का और भी जीना मुश्किल कर देंगे। इसके लिए तो पहल माता-पिता को ही करनी होगी कि वो अपनी बेटी का साथ दें, हरकदम पर उसका हौसला बढ़ाएं इसके आलावा स्कूल-कालेज में भी लड़कियों को उनके अधिकारों और आत्मरक्षा के बारें में पढाया और बताया जाना चाहिए। इसके साथ ही जो अहम् बात है वो ये कि हमारी बहन-बेटियों को भी अपने अंदर छिपी शक्ति का अहसास होना चाहिए कि वक़्त आने पर वो क्या कर सकतीं हैं,कोई दरिंदा उनकी तरफ नज़र उठा कर भी देखे तो उन्हें माँ काली या माँ दुर्गा बनने में समय न लगे।(सामाजिक दायित्वों के चलते नाम बदल दी गए हैं)
पूजा सिंह आदर्श

Friday 14 May 2010

ममता इतनी निर्मोही भी हो सकती है....

ये बिल्कुल सच साबित हो चुका है कि हम कलयुग में जी रहें हैं,घोर कलयुग में जहाँ अब रिश्तों के कोई मायने नहीं रह गए हैं,हर रिश्ता दम तोड़ता हुआ नज़र रहा हैअभी कुछ ही दिन पहले हम मदर्स डे मना कर अपनी माँ को ये अहसास दिला चुके हैं कि हम उसे कितना प्यार करतें हैं,लेकिन इसके ठीक तीन दिन बाद मेरठ शहर में कुछ ऐसा हो जाता है जो हम सब को सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या इस दुनिया से इंसानियत नाम की चीज़ बिल्कुल ही मिट गई है,क्या हमारे अंदर की सारी भावनाएं मर चुकी हैं। मेरठ के रेलवे स्टेशन की पटरियों पर एक नवजात बच्ची के रोने की आवाज़ सुनकर लोग उस तरफ दौड़तें हैं तो जो मंजर देखने को मिलता है उससे किसी की भी चीख निकल जाए,बच्ची के गले में उसकी नाल लिपटी हुई थी,खून से लथपथ बच्ची रेल की पटरियों के बीच में पड़ी हुई थी और रो-रो कर उसने अपने को हकलान कर लिया था वो बताना चाह रही थी कि उसकी इस दशा की जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि उसकी अपनी माँ है जिसने उसे जन्म देते ही ट्रेन के शौचालय में से नीचे फेक दिया और पलट कर उसकी तरफ एक बार भी नहीं देखा कि उसके उपर कितनी रेलगाड़ियाँ गुज़र जाएँगी तो क्या वो नन्ही सी जान जिन्दा बच पायेगी और हुआ भी ऐसा ही बच्ची के ऊपर से कई ट्रेने निकल गई पर उसे एक खरोंच तक नहीं आयी, वो कहते है न कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। वही हुआ उस नन्ही परी के साथ,परी......यही नाम दिया है उसको बचाने वालों ने।
ये खबर शहर में आग की तरह फैली जिसने भी सुना,उसने परी की माँ को कोसा कि क्या कोई माँ ऐसा कर सकती है? क्या ममता इतनी भी निर्मोही हो सकती है अरे जानवर को भी पता होता है कि ममता क्या होती है अगर उसके बच्चे की तरफ कोई आँख उठाकर देखे तो जानवर भी अपनी जान देने को तैयार हो जाता है पर अपने बच्चे की हर हाल में रक्षा करता है। पर इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अब हम जानवर से भी गए -गुज़रे हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि परी को माँ की गोद नहीं मिली,उसकी अपनी माँ ने उसे भले ही मरने के लिए छोड़ दिया हो लेकिन शहर की एक स्वयं -सेवी संस्था ने परी को अपनाया है अभी तक वही लोग उसकी देख भाल भी कर रहें हैं।परी के लिए शहर के लोगों का बेशुमार प्यार उमड़ रहा है,कोई उसके लिए सुंदर-सुंदर कपडे लाया तो कोई खिलौने लाया,कोई बेबी सोप लाया तो कोई पाउडर। इतना प्यार दे रहें हैं सभी कि उसे अपनी माँ की कमी कभी महसूस न हो। परी को गोद लेने वालों का भी ताँता लगा हुआ है अब तक कई आवेदन आ चुकें है लेकिन संस्था सोच-समझ कर ही किसी जिम्मेदार दंपत्ति को ही परी को सौंपेगी। मासूम परी जिसे दुनिया में आये बस कुछ ही दिन हुए है उसने इनता कष्ट उठा लिया कि उसके दुःख के आगे हर दुःख छोटा है। उसने मन ही मन अपनी माँ से पूछा तो होगा कि माँ तूने मुझे क्यों छोड़ दिया,ऐसी क्या मजबूरी थी तेरे आगे जो तुझे मेरा मोह भी नहीं रोक पाया अगर तू मुझे अपना नहीं सकती थी तो मुझे दुनिया में लाने की क्या जरुरत थी?ये सवाल जिंदगी भर उसकी माँ भी को कचोटता रहेगा, चैन तो उसे भी नहीं मिलेगा।
इस पूरे मामले में दाद देनी होगी मीडिया की,कि उसने इसे महज़ चटपटी खबर बनाकर नहीं छापा बल्कि अपनी पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए परी को सही हाथों तक पहुँचाया है इससे देखकर लगता तो है कि पत्रकारिता अभी जिन्दा है,उसमे सांस बाकी है। इसलिए मुझे गर्व है कि मैं भी इस चौथे स्तम्भ का हिस्सा हूँ।

Sunday 9 May 2010

मदर्स डे पर विशेष...तुझे सब है पता मेरी माँ ......

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई।
अगर किसी के हिस्से में माँ आए तो उससे ज्यादा खुशकिस्मत कौन हो सकता है,इस शेर के जरिये शायर यही बात समझाने की कोशिश की हैएक सुखद एहसास जैसी माँ,शीतल जल जैसी माँ,धूप में ठंडी छाँव जैसी माँ और क्या लिखूं माँ के बारें में मेरे पास शब्द नहीं है और न ही मेरी लेखनी में इतनी ताक़त है कि मैं उसके बारें में कुछ लिख सकूँ। माँ के बारें में कई बार और बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन फिर भी मैंने उसके लिए कुछ लिखने का प्रयास किया है मुझे विश्वास है कि अगर मुझसे कोई गलती हो जाए तो ईश्वर मुझे माफ़ करेंगे।
माँ शब्द में ऐसा क्या है?जिसे सुनते ही कलेजे में एक अजीब सा अहसास होने लगता है,सब कुछ एक सुखद एहसास से भर जाता है,जिसको न तो जुबान से और न ही लेखनी से बयां किया जा सकता है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इन्सान होगा जिसे अगर उसकी माँ के बारें में बोलने के लिए कहा जाए और उसका गला न रुंधे और आँख न भर आए। माँ वो खूबसूरत अहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। माँ ,जिसे ईश्वर ने अपने समतुल्य बनाया है,हर घर में वो खुद नहीं हो सकता इसलिए माँ को बनाया उसने और अपना दर्जा दिया। माँ को भी वही भावनाएं दी जो खुद ईश्वर में समाहित होतीं हैं,तभी तो कहा जाता है कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती हैं और ये शाश्वत सत्य है जिस किसी ने भी माँ की पूजा की या उसकी सेवा की समझो उसने ईश्वर को पा लिया और अपनी जिंदगी में सफलता के शिखर को छुआ।
अपने बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं करती माँ,कोख में आने से लेकर उसके जन्म तक,जन्म से लेकर बड़े होने तक सिर्फ त्याग और बलिदान ही करती है माँ। अपना सुख-चैन,अपनी नींद,अपनी खुशियाँ,अपनी इच्छाएं सब कुछ अपने बच्चो पर वार देती है अपने बच्चे की तकलीफ को बिना बताये ही समझ जाती है माँ। वह अपने बच्चे को डांटे-फटकारे या मारे पर उसके प्राण तो उसी में बसे होतें हैं। माँ की प्रशंसा में कुछ कहते ही नहीं बनता है,माँ तो बस माँ होती है ,एक पूरी दुनिया अपने अंदर समेटे हुए। क्या हम कभी ईश्वर की प्रशंसा करते हैं.....नहीं न ....तो फिर माँ की कैसे कर सकतें हैं,जिसमे साक्षात् ईश्वर का वास हो उसे पूजने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं है। बच्चा जब पहला शब्द बोलता है तो उसके मुंह से माँ ही निकलता है,यह ईश्वर का ही संकेत है कि सबसे पहले माँ का नाम लिया जाए ,तभी तो पिता से भी पहले माँ का ही नाम आता है। माँ के विषय में बार-बार यह कहना कि माँ के जैसा कोई नहीं है ....इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि माँ जैसा तो वास्तव में कोई नहीं है। औलाद को नौ महीने तक अपने खून से सींचना कोई मामूली बात नहीं है,यह वरदान सिर्फ औरत को मिला है। माँ बनकर ही उसका अस्तित्व पूरा होता है ,इसके लिए जरूरी नहीं कि बच्चे को जन्म ही दिया जाए किसी भी बच्चे की परवरिश करके अपनी ममता उसपर लुटाना भी माँ का ही रूप है।
माँ हमेशा दूसरों के बारें में ही सोचती है अपने लिए तो उसके पास कभी समय ही नहीं होता इस लिए मदर्स डे के रूप में माँ को समर्पित एक दिन बनाया गया जिससे हम उसके लिए कुछ ख़ास कर सकें,वैसे तो सारे ही दिन माँ के नाम हैं लेकिन फिर भी.... एक दिन उसे ढेर साड़ी खुशियाँ देने का। क्या सिर्फ एक ही दिन होना चाहिए माँ के लिए ये एक विचारणीय प्रश्न है दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो माँ का सम्मान नहीं करते उसे दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर कर देते हैं,उन लोगों को शायद पता नहीं कि वो कितना बड़ा गुनाह कर रहें हैं जिसकी सजा उन्हें इसी दुनिया में मिलेगी। मदर्स डे मनाना तभी सार्थक होगा जब माँ को इज्ज़त और प्यार दें क्योकि माँ जैसा तो कोई है ही नहीं एक माँ ही तो है जो हमसे निस्वार्थ प्यार करती है....मेरा अनुरोध है कि एक सवाल अपने आप से जरूर पूछें कि क्या आप अपनी माँ से प्यार करतें हैं?
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday 5 May 2010

प्यार कब तक देगा कुर्बानी....आखिर कब तक ?

जो कुछ भी आज हम लिखने जा रहें हैं वो मेरे अपने व्यक्तिगत विचार हैं जरूरी नहीं कि वे सबको सही लगें या सभी उससे सहमत हों,हर किसी का नजरिया अलग-अलग होता है चीजों को समझने का.........
ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजिए
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
कहने को ये बहुत पुराना शेर है और सबने बहुत बार सुना होगा लेकिन आज भी अपनी सार्थकता को कायम रखे हुए है .........
क्योकि प्यार करने वालों के लिए ये आज भी आग का दरिया ही है,इसे बहुत ही कम लोग पार कर पातें हैं।आग का दरिया ये तब भी था जब हीर-राँझा ने और लैला -मजनू ने प्यार किया और अब भी है जब निरुपमा-प्रियभान्शु ने प्यार किया। प्यार करनें वालों के लिए हमने एक अलग सी राय बना रखी कि प्यार करना या किसी को चाहना बहुत गलत काम है और इससे बड़ा कोई पाप नहीं हैप्यार करने वालों को तो हमेशा ही इम्तिहान देना पड़ता है,जो खुश किस्मत होतें हैं वो पास हो जातें हैं और जो बदनसीब होतें हैं उनका प्यार अधूरा ही रह जाता है......ऐसा ही कुछ हुआ दिल्ली में काम करने वाली युवा पत्रकार निरुपमा पाठक के साथ जिसे दूसरी बिरादरी के लड़के के साथ प्यार करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी अपनी जान देकर। उसके अपने ही लोगों ने उसे मौत के घाट उतार दिया.......क्या कसूर था उसका इतना ही ना कि उसने प्यार किया था,सच्चा प्यार और वो अपने प्यार को पाना चाहती थी हमेशा -हमेशा के लिए,उसने कभी ये सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके अपने ही उसके अरमानों का गला घोंट देंगे। दुनिया वालों को ये कतई बर्दाश्त नहीं हुआ कि वो अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन साथी चुने और वो भी दूसरी बिरादरी का।
ऑनर किलिंग का ये कोई नया मामला नहीं है इससे पहले भी कई प्यार करने वाले इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। समाज के ठेकेदारों को ये हक पता नहीं किसने दिया कि वो जब चाहें प्यार करने वालों के साथ ये जुल्म कर सकें। कोलकाता का रिजवान मर्डर केस,नितीश कटारा हत्या कांड ये सब प्यार करने और ऑनर किलिंग का ही नतीजा है। इसके आलावा ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि वेस्टन यू.पी में सबसे ज्यादा ऑनर किलिंग के मामले प्रकाश में आते हैं,कहीं दो प्यार करने वालों को जिन्दा जला दिया जाता हैं तो कहीं कुल्हाड़ी से काट दिया जाता है......किस जुर्म में बस प्यार करने के ....खुदा के दिए हुए इस खूबसूरत एहसास को,इस नायब नेमत को लोग पता नहीं क्यों जुर्म मानते हैं। औरों की तो छोड़ो खुद माँ-बाप ही नहीं समझ पाते अपने बच्चों को वो समझतें हैं कि उन्होंने बच्चो को पैदा किया,पढाया लिखाया,पाल पोस कर बड़ा किया तो बच्चे उनकी जागीर हैं उनपर सिर्फ उनका ही हक है,उनकी भावनाओं से हमें क्या लेना-देना। अब तक उनके सारे फैसले वही करतें आये हैं तो फिर शादी जैसा अहम् फैसला वो खुद कैसे कर सकते हैं लेकिन समझना होगा अभिभावकों को कि प्यार कोई जानभूझ कर अपने माता-पिता को नीचा दिखाने के लिए नहीं करता,ये तो बस हो जाता है,इसपर किसी का जोर नहीं चलता।
हम ये नहीं कहते कि भावनाओं में बहकर कोई ऐसा काम करे जिससे माता-पिता का नाम ख़राब हो और उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़े अपने उपर संयम रख कर और मर्यादाओं में रह कर भी प्यार किया जा सकता है ।
समाज के ठेकेदारों और प्यार के दुश्मनों को भी कोई अधिकार नहीं है कि वो उनकी राह में कोई रोड़ा अटकाएं या फिर उनकी जान ले। गलती चाहे जिसकी भी हो,जैसी भी हो लेकिन जान लेने का हक किसी को नहीं है। यहाँ कोई जंगलराज नहीं चल रहा है जब चाहा किसी को भी मार दिया। अगर बच्चों से गलती हो भी गई है तो उसे प्यार से सुधारा भी जा सकता है ,इसके लिए पहल माँ-बाप को ही करनी होगी......प्यार,इश्क,मोहब्बत का वजूद इस दुनिया से ना मिटा है और ना मिटेगा,और जब तक ये कायनात रहेगी तब तक रहेगा,प्यार करने वालों के हौसले भी कम नहीं होंगे क्योंकि.......... प्यार करने वाले कभी डरते नहीं,जो डरतें हैं वो प्यार करते नहीं....इस जज़्बे को अपने दिल में रखने वालों को सलाम....
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 22 April 2010

घुट-घुट के जीने को मजबूर हैं पुलिस वाले

ये चिराग़े ज़ीस्त हमदम जो न जल सके तो गुल हो
यूँ सिसक-सिसक के जीना कोई जिंदगी नहीं है ।
२०--१० को मेरठ के सरे अख़बारों में जो सुर्खी थी उसे देखकर दिमाग भन्ना गया,जितना दिमाग ख़राब हुआ उससे कहीं ज्यादा मन को पीड़ा हुई. पुलिस विभाग के एक वर्दीधारी सिपाही के शव को फाँसी के फंदे पर झूलता हुआ देख कर उपरोक्त पंक्तियाँ सहसा मेरे मन पटल पर उभर आई।
देश-प्रदेश की आन्तरिक सुरक्षा का भर उठाने वाला एक पुलिस कर्मी आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है यह कोई साधारण बात नहीं है। किसी इन्सान को ऐसा भयानक कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाली परिस्तिथियाँ दो-चार दिनों में उत्पन्न नहीं होती हैं बल्कि इसके पीछे घोर निराशा और दम घोटने वाला माहौल होता है। जब घुटन हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब इन्सान ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। मैंने ये बात यूँ ही नहीं लिख दी है बल्कि मुझे खुद को अनुभव है इस बात का क्योंकि मेरे पिता ने इस विभाग की ३६ साल तक सेवा की है और उन्हें कई बार ऐसे हालात में देखा है कि जहाँ ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि अपने दिल की सुने या दिमाग की। अपने ज़मीर को मारकर कोई खुद्दार आदमी चैन से कैसे रह सकता है ।
आइये पुलिस विभाग की अंदरूनी तस्वीर की समीक्षा करतें है,पुलिस विभाग को संचालित करने वाला पुलिस रेगुलेशन एक्ट लगभग १५० साल पहले हमारे अंग्रेजी शासकों ने बनाया था जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस कर्मी सप्ताह के सातों दिन व दिन के २४ घंटे का मुलाजिम होता है,उसे कभी भी ड्यूटी के वास्ते तलब किया जा सकता है । अंग्रेज़ बहादुर तो अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाकर चले गए लेकिन देश की आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी देश-प्रदेश के कर्णधारों को इस प्रकार के अव्यवहारिक नियमों पर विचार करने का समय नहीं मिला। दुनिया में श्रम क्रांति हुई श्रमिकों के लिए दिन में ८ घंटे काम करने का नियम बना लेकिन पुलिस विभाग इससे वंचित रहा
पुलिस विभाग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस विभाग की जिम्मेदारियों और संसाधनों में बहुत बड़ा गैप है। आज़ादी के बाद से पुलिस के दायित्वों में तो कई गुना इजाफा हुआ है लेकिन उसके अनुपात में पुलिस के संसाधन एक चौथाई भी नहीं बढे हैं। सबसे ख़राब स्तिथि थानों की है । एसएचओ या एसओ को छोड़कर अन्य सभी पदों के कर्मचारियों के स्थान रिक्त पड़े हैं जिन्हें भरने की कोई तर्कसंगत योजना सरकार के पास नहीं है। नगरों की ट्रेफिक -व्यवस्था,थानों का पहरा,ड्यूटी,पोस्टमार्टम करने तथा अभियुक्तों को कोर्ट में पेश करने के कार्यों में अगर होमगार्ड सहायक न हों तो पुलिस विभाग का काम चार दिन भी नहीं चल सकता।
देश की आबादी बढ़ रही है,बेरोज़गारी बढ़ रही है ,युवा वर्ग में असंतोष व्याप्त है जिसके फलस्वरूप अपराध बढ़ रहा है। चेन स्नेचिंग बढ़ी है,पर्स,मोबाइल,हैण्डबैग,लैपटॉप सरे आम लूटे जा रहे हैं और थानों में कोई एफआईआर दर्ज करने को भी तैयार नहीं है क्योंकि एक ओर तो अपराध का ग्राफ बढेगा और दूसरी ओर तफ्तीश के लिए स्टाफ कहाँ से आएगा? पिछले लगभग दो दशकों में पुलिस की कार्यशैली और उसकी संस्कृति में भयंकर बदलाव आया है,पुलिस के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में राजनैतिक दखल इस हद तक बढ़ा है कि जो पुलिस कर्मी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करतें हैं उन्हें मनचाही बढ़िया पोस्टिंग मिलती है और शेष तो धूल चाटते फिरतें हैं। एक और भयानक रोग जो घुन की तरह इस विभाग को खोखला कर रहा है वह है भ्रष्टाचार, पहले सुना जाता था कि कहीं-कहीं पुलिस वाले हफ्ता वसूल करते थे अब यह सुनने में आता है कि पुलिस वाले अपनी कुर्सी बचाने के लिए हफ्ता अदा कर रहें हैं। ईश्वर ही जानता है कि सच क्या है और इसका परिणाम क्या होगा ?पुलिस विभाग की सेवा शर्तें बहुत कठिन और कष्टदायक हैं ,थाना स्तर के कर्मचारियों की स्तिथि तो सबसे अधिक दयनीय है। मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। रहने को आवास नहीं है,समय पर अवकाश नहीं मिलता,प्रोन्नति के अवसर ना के बराबर हैं। खाना खाने,सोने व आराम करने का कोई समय नहीं है। जनता के मन से पुलिस का भय और सम्मान निकल चुका है। रास्ता जाम,थाने का घेराव,पथराव,पुलिस कर्मियों से हाथापाई अब रोज़ की बात हो गई है।
थाने की जीप में तेल अपनी जेब से डलवाना पड़ता है,दफ्तर में इस्तेमाल होने वाली स्टेशनरी भी खुद ही खरीदनी पड़ती है। अतः इस प्रकार के दम घोटू माहौल में यदि कोई संवेदनशील पुलिस कर्मी आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी घटना दुखद तो जरूर होती है लेकिन आश्चर्यजनक बिल्कुल नहीं।
पुलिस की सेवा-शर्तों में सुधार के लिए आयोग तो कई बने लेकिन उनकी सिफारिशें गृह-मंत्रालय के रिकॉर्ड रूम में धूल चाट रहीं हैं इससे पहले कि स्तिथि विस्फोटक हो जाए शासन-प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए वरना बदमाशों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले पुलिस कर्मी खुदखुशी करने पर मजबूर हो जायेंगे।
पूजा सिंह आदर्श

Sunday 18 April 2010

मासूम बना अपराधी....जिम्मेदार कौन ?

आज जो कुछ भी मैं लिख रही हूँ,वो पिछले कई दिनों से मेरे ज़हन में था बस विचारों को शब्द नहीं मिल पा रहे थे,लेकिन आज सोचा कि अपनी जिम्मेदारी से भागना ठीक बात नहीं है सो इस विषय को गंभीरता के साथ लिखने की ठान ली किन्तु इस विषय पर लिखने के पीछे जो व्यक्ति हैं उनका जिक्र करना जरूरी है और वो हैं मेरे वालिद साहब जिन्होंने ये लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया। जैसा की आप लोगों को शीर्षक देखकर ही लग रहा होगा कि कौन मासूम है और कौन अपराधी बन गया ?यहाँ मैं बता दूँ कि जो कुछ मैं लिखने जा रही हूँ वो बिलकुल सत्य घटना है ,इसमें लेश मात्र भी न तो झूठ है और न ही ये कोई कल्पना है। जिन लोगों के साथ ये सब कुछ हुआ है उन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। हाँ व्यक्तियों और जगह का नाम जरूर बदल दिया है ताकि उनकी भावनाओं को कोई ठेस ना पहुंचे। इस घटना को समझने के लिए पूरी जानकारी होना जरूरी है कि ये सब क्यों और कैसे हुआ?
मुजफ्फरनगर यू.पी के एक गाँव रिसानी के ठाकुर नरेन्द्र सिंह अपनी पत्नी -बच्चों सहित गाँव में रहते थे,बच्चों की पढाई को देखते हुए उन्होंने शहर में घर खरीद लिया और सब वहीँ रहने लगे। सभी बच्चे शहर में पढ़े और शादी भी हो गई। ठा.साहब के सबसे छोटे पुत्र राजेश ने यूँ तो उच्च शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन योग्यता के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था अतः उसने गलत राह पकड़ ली। बेटे को बिगड़ता देख ठा.साहब ने उसका विवाह मीना नाम की युवती से ये सोच कर दिया कि शायद राजेश सुधर जाए पर वो शराब का आदि हो चुका था अब ये बात मीना को अखरने लगी थी,इसी बीच मीना गर्भवती हो जाती है अब उसके भीतर एक अंतर्द्वंद चल रहा था कि वो इस बच्चे को जन्म दे या नहीं लेकिन राजेश की माँ के समझाने पर वो बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार हो जाती है। पुत्र मोनू के जन्म के बाद अपने पति के आचरण से दुखी होकर मीना अपने ६ माह के दुधमुहें बच्चे को छोड़ कर अपने मायके चली जाती है कभी ना वापस आने के इरादे से। उधर दादी ने नन्हे मोनू को सब कुछ दिया किन्तु मोनू अपनी वास्तविक माँ के स्नेह से वंचित रहा,वह धीरे-२ बड़ा होने लगा और दादी के आलावा किसी और महिला को नहीं पहचानता था। अपने बेटे का घर बर्बाद होते देख और मोनू के बारे में सोचकर ठा.साहब ने बिरादरी वालों के साथ मिलकर मीना के परिवार पर दवाब बनाया और उसे घर ले आये उस समय मोनू कि उम्र ६-७ साल की रही होगी। मीना वापस तो आ गई लेकिन अपने बदले हुए रूप के साथ,अब वो किसी की भी परवाह नहीं करती थी यहाँ तक कि मोनू की भी नहीं,उसने अपने पति राजेश को भी अपने वश में कर लिया था क्योंकि राजेश अब सुधर चुका था उसने ज्यादा शराब पीने की वजह से मौत को करीब से देख लिया था इसलिए शराब से तौबा कर ली थी,अब वो भी अपनी पत्नी की बात मानने लगा था और वापस अपने गाँव जाकर रहने लगा,इसी बीच मीना ने एक बेटी को जन्म दिया जो मोनू से लगभग ९ साल छोटी है। ठा.साहब ने अपनी जमीन का बंटवारा कर दिया था। राजेश के हिस्से में भी ५० बीघे जमीन आई थी सो उसकी जिन्दगी भी आराम से कटने लगी। इधर मोनू भी तेजी से बड़ा हो रहा था और ९वी कक्षा में आ गया था,राजेश ने उसका दाखिला गाँव के निकट ही एक अंग्रेजी स्कूल में करा दिया लेकिन मोनू गलत सोहबत में पड़ चुका था ,पढाई -लिखाई में उसकी कोई रूचि नहीं थी इसलिए वो ना तो स्कूल जाता था ना पढाई करता था। सोने पे सुहागा ये हुआ कि राजेश ने भी अपनी झूठी शान दिखाने और मोनू की जिद पूरी करने के लिए उसे मोटरसाईकिल,महंगा मोबाइल,सोने की चेन जैसी विलासता की वस्तुएं दिला दी। अब वो मोटरबाइक से स्कूल पढने नहीं बल्कि शहर घूमने जाता था अपने दोस्तों के साथ,ये बात राजेश को मोनू के स्कूल के प्रधानाचार्य ने ने बताई तो वह हैरान रह गया,जैसे -तैसे करके मोनू ने दसवीं पास की। अब तो उसकी इच्छाएं आसमान छूने लगीं और उसके शौक भी बढते जा रहे थे। उधर गाँव वाले और खानदानी लोग मोनू को उसके माँ-बाप के खिलाफ लगातार भड़का रहे थे कि तू पढ़ कर क्या करेगा तेरे पास तो ५० बीघा जमीन है उसके मन में ये बात घर कर गई वैसे भी किशोरावस्था का मन कच्चे मिटटी के बर्तन के जैसा होता है उसे जो चाहे आकार दे दो यही तो हुआ मोनू के साथ। अब आये दिन उसकी अपनी माँ के साथ झड़प होने लगी,मोनू और उसकी मान के बीच बचपन में पैदा हुई खाई और चौड़ी होती चली गई। जब मोनू का हाथ अपनी माँ पर उठ गया तो मीना ने तय कर लिया कि उस घर में या तो मोनू रहेगा या फिर वो .......ऐसी भी कोई सगी माँ होती है क्या, जो अपनी औलाद के लिए ऐसा फरमान जारी करे ....खैर अपवाद तो हर जगह मौजूद हैं। राजेश उन दिनों बीमार चल रहा था इसलिए उसे बेटे से ज्यादा पत्नी की जरूरत थी लिहाज़ा बेटे को मार-पीट कर घर से निकाल दिया। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त,अब यहाँ से बदलती है मोनू की तकदीर......
मोनू तो खुद भी गाँव में रहना नहीं चाहता था क्योंकि उसे शहर की हवा लग चुकी थी। वह भाग कर शहर आ गया अपनी दादी के पास,दादी ने भी अपने लाडले पोते को गले से लगाया और आसरा भी दिया लेकिन उसे क्या पता था कि जिसे वो सहारा दे रही है वही एक दिन उसके गले की फाँस बन जाएगा.अब दादी का घर ही मोनू की अय्याशियों का नया अड्डा बन गया था,दादी के घर में ही शराब और सिगरेट का जमकर प्रयोग होता था अगर दादी मना करती तो उसकी भी शामत आ जाती। दादी भी अंदर ही अंदर परेशान थी, उसने खूब कोशिश की,कि मोनू के माता-पिता उसे वापस अपने साथ ले जाएँ लेकिन उन्होंने उसकी एक ना सुनी यहाँ तक कि सारे रिश्तेदारों ने भी बहुत समझाया लेकिन मोनू के माँ-बाप टस से मस नहीं हुए,नाजाने किस मिटटी के बने हुए थे। मोनू की अय्याशियों के कारण उसके खर्चे बढते ही जा रहे थे और दादी की जमा-पूंजी को भी वो ख़तम कर चुका था और कोई काम काज वो कर नहीं सकता था क्योंकि शैक्षिक योग्यता ना के बराबर थी लिहाज़ा उसके पास अपराध करने के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। शहर के कुछ जाने माने अपराधियों से उसकी जान-पहचान थी,मोनू के पास मोटरबाइक तो पहले से ही थी अतः वह लुटेरों के गिरोह में शामिल हो गया और लूट की लगातार कई वारदातें की.लेकिन पुलिस की नज़रों से ज्यादा दिन तक नहीं बच सका और उनके हत्थे चढ़ गया उस पर लूट के ७ मुकदमें अलग-२ थानों में दर्ज किए गए। ठाकुर साहब के साथ -२ पूरे परिवार की काफी बदनामी हुई,कोई उसकी जमानत तक कराने को तैयार नहीं हुआ। उसकी दादी ७५ साल की उम्र में अपने पोते की जमानत कराने के लिए दर-दर भटकी आखिर में राजेश और उसकी पत्नी को अहसास हुआ कि शायद वो अपने बेटे के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं अगर बच्चा गलत राह पर चला गया है तो सबसे पहले माँ-बाप ही उसकी ऊँगली पकड़कर वापस लाने का प्रयास करतें हैं। मोनू के माता-पिता को भी ये अहसास तो हुआ मगर देर से .....अंग्रेजी की एक कहावत के अनुसार एक बुद्धिमान व्यक्ति जिस भूल का सुधार शुरू में ही कर लेता है,उसी कार्य को मूर्ख अंत में जाकर करता है ,तब तक काफी देर हो चुकी होती है। खैर फिर भी ....देर आयद,दुरुस्त आयद। अब सवाल ये है कि भूल किससे हुई और कहाँ हुई?दोष भी किसे दें?मोनू को,उसके माँ-बाप को या फिर उसकी किस्मत को पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि माँ-बाप ने अपनी जिद में आकर बेटे का जीवन तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।फिलहाल मोनू जमानत पर रिहा हो चुका है,किस्मत ने उसे और उसके माँ-बाप को एक और मौका दिया है अपनी भूल सुधारने का ।
इस लेख में लिखे गए घटना क्रम के बारें में मैं अपने प्रबुद्ध पाठकों कि राय जानना चाहती हूँ कि चूक कहाँ हुई और एक साधारण बच्चे को अपराधी बनाने का जिम्मेदार कौन है ?

Monday 12 April 2010

फिर मिलेंगे ..........

अभी एक या दो दिन पहले मैंने किसी चैनल पर एक फिल्म देखी जिसका शीर्षक था........फिर मिलेंगे.......इससे पहले मैंने ये फिल्म कभी नहीं देखी थी,कभी कुछ आधा-अधूरा सा सुना था इसके बारें में लेकिन जब मैंने इसे देखा तो पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि अभी भी सार्थक सिनेमा जीवित है और इस फिल्म ने मेरे दिल-ओ -दिमाग पर ऐसी छाप छोड़ी और मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया .......अब आप सोचेंगे कि क्या सोचने पर मजबूर किया ?दरअसल ये फिल्म आधारित है एड्स विषय पर ...इस फिल्म कि मुख्य पात्र है शिल्पा शेट्टी जो एक बड़ी विज्ञापन कम्पनी में काम करती है और एक दिन अचानक उसे पता चलता है कि उसे एड्स हो गया है। वो भावुक होकर ये बात अपने बॉस को बता देती है और फिर वही होता है जिसका अनुमान कोई भी आसानी से लगा सकता है,एक एड्स के मरीज़ को अपने ऑफिस में रखना ये बात उसके बॉस को नागवार गुजरती है और वो उस पर ये इल्ज़ाम लगाकर कि वह अपने काम में लापरवाही करती है,उसे नौकरी से निकाल देता है। फिल्म में शिल्पा ने तमन्ना नाम की युवती का किरदार निभाया है जो एड्स से पीड़ित है,और कितनी ख़ूबसूरती से निभाया है इस किरदार को उन्होंने, एचआईवी+ होने का दर्द उनके चहरे पर साफ दिखाई देता है बहरहाल अपने देश में क्या पूरी दुनिया में ना जाने कितनी तमन्ना हैं जिन्हें एचआईवी + होने का ये खामियाज़ा भुगतना पड़ता है और इस तरह के व्यवहार से रु- ब-रु होना पड़ता है। एड्स मरीजों की तादात जिस रफ़्तार से बढ़ रही है वो खतरे की घंटी है। ये तो हम सब को पता है कि एड्स एक लाइलाज बीमारी है और ये कैसे हो सकती है ये भी बताने कि जरुरत नहीं है,हम सब जानते हैं,सब समझते हैं फिर भी एड्स कि बीमारी कम होने का नाम ही नहीं ले रही बल्कि इसके मरीजों की संख्या बढती ही जा रही है। बात करतें हैं एड्स रोगियों के साथ होने वाले भेद भाव की....उनके साथ हम इतने कठोर कैसे हो सकते हैं,अगर कोई एचआईवी + है तो इसका मतलब ये नहीं कि उसकी जिन्दगी ख़त्म हो गई,उसे पूरा हक है अपनी जिन्दगी को अपने ढंग से जीने का,उसे भी वही सब अधिकार हैं जो किसी भी सामान्य इन्सान को होते हैं ।सपने देखने का,अपनी इच्छाओं को पूरा करने का और फिर चाहे पढाई का अधिकार हो या जॉब करने का,उससे ये अधिकार कोई नहीं छीन सकता अगर कोई ऐसा करता है तो ये मानवता के विरुद्ध है और महा पाप है। फिल्म में यही दिखाया गया है कि कैसे तमन्ना अपने हक की लड़ाई को लडती है और तमाम मुश्किलों को पार करने के बाद आखिर में जीत भी उसी की होती है। अपने हक और मान-सम्मान के लिए लड़ना कोई गलत काम नहीं है,ये सबका अधिकार है। एड्स के मरीज़ हमारी दया के नहीं बल्कि सहयोग के पात्र हैं,वो भी हमारे समाज का हिस्सा हैं इस बीमारी कि वजह से हम उन्हें अपने से अलग नहीं कर सकते,उन्हें भी जीने और खुश होने का हक है। छोटी-छोटी खुशियों को अपने दामन भर लेने का हक है। आइये....आगे बढ़कर इन लोगों का हाथ थामे और सामान्य जीवन जीने में इनका सहयोग करें.....जिन लोगों को मेरी बात समझ ना आए या अटपटी लगे वो यह फिल्म जरूर देखें और सार्थक सिनेमा को सराहें....इसी कारण मैंने इस लेख का शीर्षक नहीं बदला......फिर मिलेंगे ........



Friday 9 April 2010

हमाम में सभी नंगे ...........

कहा जाता है कि पत्रकार समाज का आईना होता अब ये बात कितनी सार्थक है ये बताने की तो अब जरुरत ही नहीं है तो अब पत्रकारिता आईना रह गई है और ही पत्रकार कलम के सिपाही.समाज के इस आईने में अब क्या दिखाई दे रहा है इसे बताने कि आवशयकता नहीं है .चाहे प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो लिखते हुए भी शर्म आती है कि ये दलालों की मंडी बन के रह गई है,खरीद-फरोख्त का धंधा पूरे जोर-शोर से चल रहा है.हालांकि मैं भी एक पत्रकार हूँ मुझे अपनी कम्युनिटी के बारें में न तो ऐसा कहना चाहिए और न ही लिखना चाहिए लेकिन मैं मजबूर हूँ क्योंकि मैंने अपनी कलम से समझौता नहीं बल्कि वादा किया है कि इससे निकलने वाले शब्दों का कभी भी सौदा नहीं करना है ,मंडी में इसकी बोली नहीं लगानी है।
अब आप किसी भी समय कोई भी चैनल खोल के देख लें सुबह से शाम तक एक ही खबर चला-चला के जब तक उसका दम ना निकाल दें चैनल वालों को चैन नहीं आता,सब टीआरपी का खेल है भाई ..........अगर ऐसा ना करें तो दाल-रोटी के भी लाले पड़ जाएँ .यदि कोई महत्वपूर्ण खबर किसी खास व्यक्ति के बारें में है तो उसे दिखाने से पहले सौदेबाज़ी जरूरी है,सौदा पट गया तो वारे-न्यारे नहीं तो बेटा भुगतो नतीजा फिर तो चैनल वाले उसका ऐसा बैंड बजायेंगे कि उसे भी छठी का दूध याद ना आ जाए तो कहना लेकिन ये बात प्रत्येक चैनल पर लागू नहीं होती.इसके बाद बचता है अख़बार.....अब यहाँ भी सबके उस्ताद बैठे हैं किसी भी ख़बर को इतनी आसानी से छापने वाले तो ये भी नहीं है अगर इन्हें चैनल वालों का भी बाप कहा जाए तो इसमे कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.ख़बर छुपाने के लिए अगर बड़ा सौदा किया जाए तो इन्हें इससे भी गुरेज़ नहीं है।
इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि क्या हमारे समाज में सिर्फ नकारात्मक घटनाएँ ही घटित होती हैं या सब कुछ बस गलत ही हो रहा है ,अख़बार के जयादातर पन्ने क्राईम की ख़बर से ही भरे होते है या फिर ऐसी ख़बरें होती हैं जिनसे अख़बार को ही फ़ायदा हो,हमारे चारों तरफ कहीं कुछ अच्छा भी तो हो रहा होगा क्या उसे सबके सामने लाना इनका फ़र्ज़ नहीं है,अगर कोई पोजिटिव ख़बर लगाई भी तो मजबूरी में। पर क्या किया जाए वो कहावत है न कि हमाम में तो सभी नंगे है फिर किसी एक को ही दोष क्यों दिया जाए।
मुझे डर है कि राजनीति की तरह ही कहीं पत्रकारिता भी काजल की कोठरी न बन जाए कि लोग इसमें जाने से या करने से ही कतराने लगें ........










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Wednesday 7 April 2010

हंगामा है क्यों बरपा ...जो सानिया-शुएब हैं साथ

आजकल सुर्ख़ियों में छाए हुए हैं सानिया मिर्ज़ा और शुएब मलिक ............अख़बार और टीवी चैनल दोनों पर ही ये हॉट न्यूज़ है कि दोनों जल्द ही शादी के बंधन में बंधने वाले हैं ......तो इसमें ऐसा क्या हो गया कि इतना हंगामा खड़ा हो गया?लेकिन ये तो होना ही था क्योकि शुएब पाकिस्तानी जो हैं अगर उनकी जगह कोई और होता या सानिया किसी और से शादी करने का फैसला करतीं तो शायद किसी को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था किन्तु कोई भारतीय लड़की किसी पाकिस्तानी की दुल्हन बनकर जाए ये कैसे हो सकता है? शादी होने से पहले ही ये दोनों इतने विवादों में घिर गए की शुएब की पहली पत्नी आएशा अचानक से प्रकट हो गयीं जिनसे शुएब ने फ़ोन पर निकाह किया था, अगर किया था तो ये मोहतरमा अब तक कहाँ थी, एकदम उन्हें एहसास हो गया की शुएब उनके पति हैं ये तो वही हाल हो गया जो अभिषेक बच्चन की शादी से ठीक पहले हुआ था कि जहान्वी नाम कि एक युवती ने भी उनके ऊपर ये इल्जाम लगा दिया था कि अभिषेक ने उससे शादी कि है एक बारगी तो बच्चन परिवार के होश उड़ गए थे लेकिन वो देश का एक प्रतिष्ठित परिवार है जिस पर कोई ऐरा-गैरा जल्दी हाथ नहीं डाल सकता.बच्चन परिवार ने तो इस मुसीबत से जल्दी ही पिंड छुडा लिया लेकिन शुएब बेचारे बुरे फंसे आखिर उन्हें अपनी कथित पत्नी को तलाक देना ही पड़ा.शुएब को तो छोड़ो सानिया को भी अपने ही मुल्क में कम मुसीबतों का सामना नहीं करना पड़ा कहीं उनके विरोध में नारे लगाये गए तो कहीं उनका पुतला फूँका गया.देश और समाज के ठेकेदार हाथ धोकर नहीं बल्कि नहा धोकर उनके पीछे पड़ गए.क्या ये लोग नहीं जानते कि शादी एक अत्यंत निजी फैसला है इसमें किसी कि भी दखलंदाजी नहीं चल सकती.कोई भी बालिग जब चाहे, जिससे चाहे शादी कर सकता है फिर चाहे वो पाकिस्तानी हो,अफगानी हो,ब्रितानी हो या फिर हिन्दुस्तानी.हंगामा क्यों बरपा क्योंकि सानिया खेल जगत कि चर्चित हस्ती हैं.रोजाना बहुत से लोग अपने मुल्क से बाहर शादी करतें हैं दूसरे देश कि नागरिकता लेते हैं किसी को कोई फर्क पड़ता है क्या?फिर सानिया-शुएब की शादी से क्यों?इसी बीच एक उलेमा साहब का बयान आता है कि सानिया को १७ करोड़ मुस्लिम लड़कों में से कोई नहीं मिला शादी करने को.वैसे उलेमा साहब कि बात में दम तो है जब बच्चे बड़े होतें है तो हम उन्हें सही गलत का निर्णय लेना सिखाते हैं कुछ काम ऐसे होतें हैं जो हमे खुद ही सोच समझ कर करने चाहियें कि हम ये कर तो रहे हैं लेकिन इसका नतीजा क्या होगा ?अगर आप कोई सेलेब्रिटी हैं ,या अपने देश का नेतृत्व करतें हैं तो आपकी जिम्मेदारी और भी बढ जाती है कि आप सिर्फ अपने बारें में न सोच कर देश की शांति और अमन के बारें में भी सोचें .........बहरहाल ये सानिया -शुएब का निजी फैसला है हम और आप सिर्फ अपने विचार प्रकट करने के आलावा कुछ नहीं कर सकते और जो लोग बेवजह हंगामा खड़ा कर रहें हैं उन्हें भी समझना होगा कि हंगामा करने से देश की शांति ही भंग होगी ,जिसे जो करना है वो तो करेगा ही ।
पूजा सिंह

Thursday 1 April 2010

ये किसकी नज़र लगी ........

क्या होता जा रहा है हम लोगों को कि अमन और चैन की जिंदगी रास ही नहीं आती हमे.अभी पिछले दिनों बरेली जैसे शांतिप्रिय शहर में जो दंगे हुए,आगजनी हुई, करफू लगाया गया वह बिल्कुल अप्रत्याशित घटना है .बरेली का इतिहास पलट कर देख लीजिये जो कभी भी साम्प्रदायिक दंगो की हवा भी उसे लगी हो पर अब ऐसा भी हो गया.बरेली भी अलीगढ,मेरठ और मुरादाबाद की तरह ही मुस्लिम बाहुल्य शहर है लेकिन आज तक भी सांप्रदायिक आग कि लपटें उसे छू भी नहीं पायीं फिर ना जाने किसकी नज़र लग गई कि बरेली का माहौल ख़राब हो गया.आला हज़रत और पांच नाथों के शहर को भी नहीं बक्शा अमन के इन दुश्मनों ने.जिस शहर के बाशिंदे आपस में इतने घुल-मिल कर और प्यार से रहते हों वहां कि फिजां ख़राब हो जाए ये बात कुछ हजम नहीं होती.किसी कि सुनी सुनाई बात पर यकीन नहीं किया जा सकता लेकिन जब आपने स्वयं अनुभव किया हो तो ........मैंने अपनी जिंदगी के सात अहम् साल गुजारें हैं उस शहर में लेकिन कभी भी ये महसूस नहीं किया कि इस शहर में हम महफूज़ नहीं हैं.आज भी इस शहर कि जमी पर पैर रखते ही अहसास हो जाता है अपनेपन का फिर ये कैसे मान लिया जाए कि बरेली एक सांप्रदायिक शहर है.जब कभी भी इस शहर पर कोई मुसीबत आई है तो यहाँ के लोगों ने मिल- जुल कर और डट कर उसका सामना किया है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आगे भी वो ऐसा ही करेंगे ताकि कोई बरेली जैसे अमन पसंद शहर कि फिजां ख़राब ना कर सके.इंशाअल्लाह

पूजा सिंह

Monday 22 March 2010

जलवा बीसमबीस का........

इन् दिनों आईपीएल २०-२० का जलवा चारो तरफ दिखाई पड़ रहा है जिधर भी सुनो बस एक ही शोर सुनाई देता है.वास्तव में २०-२० ने क्रिकेट को एक नई दिशा तो दी है और इसमें भी कोई दोराई नहीं है कि इसने क्रिकेट को बेहद मनोरंजक और रोमांचकारी बना दिया है.आईपीएल देखने में उन लोगों को भी मजा आ रहा है जिन लोगों के पास समय की कमी है.बीसम्बीस के इस खेल ने क्रिकेट को नई बुलंदियों तक पहुंचा दिया है.ग्लैमर से भरपूर इस खेल में बच्चों,बूढों,युवाओं और महिलाओं तक को भी खूब आनंद आता है.क्रिकेट सितारों के आलावा फ़िल्मी सितारों की मौजूदगी अगर इस खेल को दिलचस्प बनाती है तो चीअरलीडर्स का भी जलवा कुछ कम नहीं है.इन सब ने मिलकर बीसमबीस के इस खेल का रुतबा ही बढ़ा दिया है.दो साल पहले शुरू हुए इस आईपीएल की लोकप्रियता में कहीं भी कोई कमी नहीं आई है बल्कि इसकी शोहरत हर साल बढ़ती ही जा रही है.इस बार ४ अरब डॉलर का कारोबार करना इस बात को साबित करता है की आईपीएल को लोग कितना पसंद करते है और इसकी लोकप्रियता में कमी आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता बल्कि हर साल बढ़ता क्रेज साबित करता है की आईपीएल को लोग कितना पसंद करते हैं.

Wednesday 10 March 2010

आखिर संघर्ष काम आया .....मिल ही गई जीत

महिला विधेयक को राज्यसभा ने आख़िरकार हरी झंडी दिखा ही दी,इस स्वीकृति ने मानो पूरे राजनैतिक जगत में उथल-पुथल सी मचा दी हो पता नहीं कुछ लोगो को इससे न जाने क्या आपत्ति थी लेकिन कुछ भी हो इस बिल ने उन लोगो की पोल जरुर खोल दी जो महिलाओं के हितैषी होने का ढोंग करते रहे है.नारी पूजनीय है, वह देवी स्वरुप है,हम नारी का सम्मान करते हैं उन्हें बराबरी का दर्जा देना चाहते हैं ऐसे लोगों की तब हवा क्यों निकल गई जब ये प्रस्ताव पारित हो गया.इन लोगों ने इस बिल की राह में हमेशा रोड़ा अटकाया है क्योकि ये जानते है कि हिस्सा बाँट होना तो इनके में से ही है यदि महिलाओं को भी आरक्षण मिल गया तो उनके सशक्तिकरण में बढ़ावा होगा.ये बात समाज के कुछ ठेकेदारों को कैसे बर्दाश्त हो सकती है इसीलिए ये लोग इतना हल्ला मचा रहे थे .इन लोगों कि कथनी और करनी में अंतर साफ हो चुका है और बड़े नेताओं व दलों का पर्दाफाश हो चुका है अब ये लोग महिलाओं के हित कि बात करने का ढिंढोरा नै पीट सकते है .जब राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता ही दोगले चरित्र के होंगे तो उनसे क्या उम्मीद कि जा सकती है .युपीए सरकार का नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा ये तो तैय है .जब यह बिल पास हुआ तो शरद यादव जी ने कहा कि मार्शल के बल पर ये बिल पास करवा कर सरकार क्या साबित करना चाहती है ?अगर मार्शल के बल पर कुछ अच्छे काम या यूँ कहें कि देश का कुछ तो भला हो जाए तो मार्शल देश के हर कोने में तैनात होने चाहिए खासकर संसद में तो इनकी नितांत आवशयक्ता है जो लोग संसद कि गरिमा को ठेस पहुंचाते है कम से कम उन्हें तो बाहर का रास्ता दिखाया जा सके .बहरहाल अंत भला तो सब भला .महिलाओं ने हमेशा ही हर छेत्र में खुद को साबित किया है इस लड़ाई में भी फ़तेह तो मिलनी ही थी सो मिल गई अब बड़े लोग कुछ भी राग अलापते रहे कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है महिला आरक्षण बिल तो अब पास हो चुका है इससे बौखलाए लोगों के पास सिवाय हाथ मलने के आलावा दूसरा कोई चारा नहीं है .