Tuesday 17 August 2010

क्या हम वाकई आज़ाद है...यही मायने हैं आज़ादी के?????



अभी दो दिन पहले ही हमने अपनी आज़ादी की ६३वीं सालगिरह मनाई है, इस मौके पर देश के सर्वश्रेष्ठ लोगों ने अपनी तमाम उपलब्धियां भी गिनवा दी कि अब तक हमारे देश को इन लोगों ने क्या दिया है और देश ने कितनी तरक्की की है............अब इन लोगों के इस दमदार दावे में कितना दम हैं इस पर एक बड़ा सवालिया निशान है????क्या हम आज भी सच में आज़ाद हैं और खुली आज़ाद हवा में सांस ले रहे हैं????ये एक विचारणीय प्रश्न है........क्या सिर्फ अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पा लेने को ही आज़ादी कहते हैं?जिन लोगों के संघर्ष ने हमें उस नरक से बाहर निकाला जिनके अमूल्य बलिदान की बदौलत ही हम आज अपने वजूद को कायम रखे हुए हैं क्या वाकई में हम उनके प्रति सच्ची श्रधांजलि अर्पित करते हैं या उनको याद करने का ढोंग मात्र करतें हैं।हम कितना भी चिल्ला-चिल्ला के यह कह लें की हम आज़ाद हैं और देश तरक्की कर रहा है,हम उन्नति की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहें हैं लेकिन सच वही है ...ढ़ाक के तीन पात......
केवल कह देने भर से या प्रगति का ढोल बजाने से ये सच हो जाएगा कि जैसा सपनो का भारत हमारे पूर्वजों ने सोचा था क्या ये भारत वैसा ही है ?.....नेहरु,गाँधी,शास्त्री,सुभाष के देश की क्या हालत हो गई है। अगर हमारे देश के कर्ता-धर्ता ये सोचते हैं कि हमारे देश में तो सब ठीक चल रहा है और सब आज़ादी का जश्न मन रहें हैं तो ये सरासर गलत सोचतें हैं और बहुत बड़ी गलत फहमी का शिकार हैं। जिस देश में आज भी लोग अशिक्षित हैं,बेरोजगार हैं,अन्धविश्वासी हैं.रुढ़िवादी हैं,जहाँ आज भी लोगों को पीने का पानी नहीं मिलता,बिजली नहीं मिलती,यहाँ तक की बुनियादी सुविधा रोटी-कपडा और मकान नहीं मिलता,जहाँ आज भी बहुत से लोगों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं होती, दवा और इलाज के अभाव में लोग तड़प-तड़प के मर जातें हैं।भ्रष्टाचार की जड़ें अब इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकने में शायद बरसो लग जाएँ।देश के आम नागरिक को सुरक्षा के नाम पर क्या मिला है बम के धमाके और ताबड़तोड़ चलती गोलियों की आवाज़.....जिस देश में देश का आधार और आधी आबादी कही जाने वाली महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं,जो अकेले बेख़ौफ़ कहीं आ ,जा नहीं सकतीं,उनकी इज्ज़त पे दाग लगाने के लिए भेड़िये खुले आम घूमते हों। इतना सब हो जाने के बाद भी क्या हम आज़ाद हैं?,,,,,राधा-कृष्ण ,हीर राँझा के देश में दो प्यार करने वालों को नफरत की बलि चढ़ा दिया जाता है सिर्फ अपनी झूठी और दो कौड़ी की इज्ज़त के लिए। ये इज्ज़त तब कहाँ चली जाती है जब पडोसी दुश्मन अपनी धरती माँ की इज्ज़त पर हाथ डालता है।
बेटों की लालसा में हम अजन्मी बेटिओं को निर्दयता से मार रहें हैं और अपने आप को गर्व से आज़ाद कहतें हैं। जिस देश में कई हज़ार लोग सिर्फ एक वक़्त खाना खातें हों और भूखे पेट सोना जिनकी मजबूरी हो,गरीबी जिनका नसीब है ऐसे में क्या हमे आज़ादी का जश्न मानना चाहिए????गहराई से आत्मचिंतन करिए और फिर बताइए की क्या मैंने कुछ गलत कहा है......जो मेरे इन सवालों को गलत ठैरा दे उसके लिए ये खुली चुनौती है कि वो इन सारे प्रश्नों का तर्क सहित उत्तर दे......अगर कोई यह कहता है कि नहीं आपके ये सारे तर्क गलत हैं और देश वाकई तरक्की कर रहा है और हम स्वतंत्र हैं तो मेरी नजरों में उससे बड़ा देशद्रोही कोई नहीं.....अब बदसूरत शक्ल आईने में बदसूरत ही दिखेगी और अगर कोई ये कहे कि नहीं सुंदर दिख रही है तो.... दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.....सिर्फ भाषण देने भर से देश तरक्की नहीं करता। आज़ादी मिले गरीबी से,भुखमरी से,भ्रष्टाचार से अशिक्षा से,रूढ़िवादिता से तभी तो हम आज़ाद होने का दवा कर सकतें हैं।
जिन लोगों ने इस देश को अपने खून से सींचा,उस देश के लोग अब इसका खून चूस रहें हैं। जिस तरह भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंकते समय यह कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है उसी प्रकार आज जब हम बहरे होकर अपने कानो पे हाथ रख कर बैठे हैं, हमें भी झकझोरने के लिए किसी धमाके की ही जरुरत है।जब तक हमारी अंतर-आत्मा साफ़ नहीं हो जाती और हम आज़ादी के सही मायने नहीं समझते तब तक हमें आज़ादी का जश्न मनाने का कोई हक नहीं है।


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