Wednesday 27 April 2011

सांप्रदायिक दंगे.....इंसानियत पर सवालिया निशान????


हिन्दू दिखाई दे न मुसलमाँ दिखाई दे
आँखे तरस रही है कि इंसा दिखाई दे।
क्या जिंदगी है नाम इसी का ज़माने में
हर शख्स जिन्दगी से गुजरा दिखाई दे।
धर्म -जात,साम्प्रदायिकता विशेष पहचान है हमारे देश की और इनकी खातिर इंसानियत का दुश्मन बन जाना हमारा अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी। जब देश में कोई आतंकी हमला हो या फिर हमारे पड़ोस में कोई चोर बदमाश गुसकर कोई वारदात कर जाए तो कोई भी खुदा या ईश्वर का बन्दा आपकी मदद करने या आपके हक में बोलने के लिए खड़ा नहीं होगा और एकजुट होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि उसे देश से या आपसे मतलब ही क्या है??ईश्वर या खुदा यहाँ मैंने अलग-अलग इसलिए लिखा है कि हमारे देश के ९०% लोग इन्हें अलग ही समझते हैं केवल १०% लोग ही अपनी सोच को बदल पाए हैं,उसमे खुलापन ला पाए हैं कि हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई सब एक ही परमात्मा की संतान हैं। बाकी तो सबके अलग-अलग भगवन हैं।
धर्म-संप्रदाय के नाम पर तो सब मर मिटने को या मरने-मारने को तैयार हो जातें हैं लेकिन जरा ये कह कर तो देखिये कि सीमा पर जरुरत है आपकी.....तो एक भी आवाज़ नहीं निकलेगी। कहने का मतलब ये है कि हम चाहे कितना भी पढ़-लिख जाएँ ,कितनी भी तरक्की कर लें ,लेकिन हम आज भी गुलाम है,बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। ये बेड़ियाँ हैं साम्प्रदायिकता की ,जातिवाद की। हमें अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ादी तो मिल गई लेकिन इनकी दासता से मुक्ति पता नहीं कब मिलेगी??यदि हम साम्प्रदायिकता के गुलाम न होते तो जो तीन दिन पहले मेरठ में हुआ वो न होता। हुआ ये कि कुछ गैर मुस्लिम उपद्रवी तत्वों ने मस्जिद में घुसकर वहां के इमाम से अभद्रता की,मारपीट की,और धर्मग्रन्थ को भी नुकसान पहुँचाया बस फिर क्या था बवाल तो होना ही था।लोग इकट्ठे होकर सड़कों पर उतार आये और देखते ही देखते ये घटना हिन्दू-मुस्लिम दंगे में तब्दील हो गई। मेरठ वही जगह है जहाँ से अमर शहीद मंगल पाण्डेय ने १८५७ में आज़ादी की लड़ाई का बिगुल बजाया था। ऐसी पावन धरती को न जाने क्यों बार-बार अपनी परीक्षा देनी पड़ती है।
मेरठ सांप्रदायिक मामलो में पहले से ही काफी संवेदनशील रहा है। यहाँ हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़कने का इतिहास पुराना है। इस बार भी ऐसा ही हुआ देखते ही देखते पूरा शहर सुलग उठा। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल,आगजनी,पथराव,भगदड़ और पुलिस की फायरिंग। बसों में आग लगा दी,तीन पुलिस चौकियां फूँक दीं,दुपहिया वाहनों में आग लगाई,कई पुलिस वाले जख्मी हुए। गनीमत ये रही कि कोई हताहत नहीं हुआ। पूरा इलाका छावनी में बदल गया। स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए।
मेरठ में इन दिनों ऐतिहासिक नौचंदी मेला अपने पूरे शबाब पर है और उस रात को भी मेले में भीड़ अपने चरम पर थी। जैसे ही शहर में दंगा होने की खबर फैली मेले में भगदड़ मच गई, लोग अपने घरों की तरफ भागने लगे क्योकि जहाँ दंगा हुआ वो जगह मेले के पास ही है। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से भीड़ को काबू में किया तब जाकर स्तिथि नियंत्रण में हो पाई वरना कितना बड़ा हादसा हो सकता था,कितने बेक़सूर लोग मारे जाते। लेकिन इस सब से इन लोगो को क्या सरोकार जो देश की शांति भंग करना चाहतें हैं.जो ये नहीं चाहते कि देश में अमन-चैन कायम रहे। उनका तो मकसद ही ये है कि पहले तो दंगा भड़का दो फिर उसे राजनैतिक रंग दे दो। जान माल का नुकसान हो जाने के बाद शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला। गाज गिरती है पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों पर । या तो इनका तबादला कर दिया जाता है या जिसकी ज्यादा किस्मत ख़राब हो उसे सस्पेंड। हर हाल में दोषी अफसर ही पाए जातें हैं। अब ये लोग तो गए नहीं थे दंगाइयों को दावत देने कि आओ और लगा दो आग शहर को। इनके पीछे जो असली चेहरें हैं उन्हें बेनकाब कोई नहीं करना चाहता क्योंकि जो ये सब कर रहें हैं उसमे इन लोगों का अपना फ़ायदा है।
राजनेताओं से,शहर के मेयर से,आला अफसरों से क्या उम्मीद की जा सकती है???ये बेचारे तो खुद ही इतने व्यस्त हैं कि इनके पास आम जनता के लिए समय ही नहीं है....न समय है,न नीयत है। हमें आदत पड़ गई है बात-बात पर इनके तलवे चाटने की। इनका इलाज तो ये है कि इनके किसी सड़े हुए अंग की तरह काट फेंकों तभी इन्हें अपनी असली औकात पता चलेगी। हमें ही समझना होगा...अपने आप को और अपनी सोच को बदलना होगा कि सब धर्म सामान है,उनके साथ न तो किसी किस्म की अभद्रता स्वयं करे और न दूसरों को करने दे।जिस प्रकार हमें अपना धर्म प्रिय है उतना ही सम्मान आप दूसरें धर्म को भी दें।दूसरे धर्म का अपमान बर्दाश्त करना मानवता नहीं है। यदि किसी ने कोई ऐसी शर्मनाक हरकत की है तो उसकी शिकायत पुलिस-प्रशासन से करें न कि भावनाओं में बहकर दंगा -फसाद करें। अरे.... धर्म-जात तो बाद में है सबसे पहले तो हम इन्सान हैं,,,,हम सब भारतीय हैं.लड़ाई झगडे से तो अपनों को ही नुकसान पहुंचा रहे हो......बस एक बार अपनी अंतरात्मा से पूछ कर देखो कि जिन घरों में आग लगा रहे हो.... क्या वो आपके अपने नहीं हैं?????????मुट्ठी भर स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर अपनों का घर मत जलाइए।
इस घटना पर मुझे अपने ही शहर में अपनों का दंश झेल चुके डा.बशीर बद्र का एक शेर याद आता है कि.....
लोग टूट जातें हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 21 April 2011

फीकी पड़ती जा रही ज़री कारीगरी की चमक......


हमारे देश में बहुत सी जगह ऐसी हैं जिनकी पहचान या तो वहां पैदा होने वाली चीजों से होती है या फिर वहां के उद्दयोग -धंधो सेजैसे-लखनऊ अपनी चिकिनकारी,अलीगढ अपने ताला उद्दयोग,मेरठ कैंची खेल का सामान बनाने के लिए,मुरादाबाद पीतल उद्दयोग के लिए विश्व-प्रसिद्ध है ठीक वैसे ही उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर बरेली जो बांस-बरेली के नाम से भी जाना जाता है अपने ज़री-ज़रदोज़ी के काम के लिए भी शुरू से ही जाना जाता है। वैसे तो बरेली में और भी उद्दयोग धंधे हैं जिनके लिए बरेली विश्व-प्रसिद्ध है...आइये एक नजर इन् पर भी डालते हैं-बांस(केन)उद्दयोग,इमारती लकड़ी से बना फर्नीचर उद्दयोग,पतंग व मांझा उद्दयोग और बेहद प्रसिद्ध आँखों में डाले जाने वाला सुरमा। इन सबके ऊपर बरेली की असली पहचान है यहाँ की परंपरागत ज़री-ज़रदोज़ी...जिसके कारण ही बरेली को नाम दिया गया ज़री नगरी। ज़री के काम की खासियत ये होती है कि ये काम हाथ से किया जाता है,इसमें किसी भी तरह की मशीन का कोई इस्तेमाल नहीं होता है। हाथ से किया गया ये काम इतना बारीक़ और खूबसूरत होता है कि कोई भी इसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकता। हाथ से की गई इस कारीगरी में एक डिजाइन को पूरा करने में कई-कई दिन लग जाते हैं। लकड़ी का अड्डा(फ्रेम)बनाकर उसमे सलमा-सितारे,कटदाना,कसब,नलकी,मोती,स्टोन आदि बड़ी सफाई टांके जाते है। जितने कम दामो पर इसका मैटीरीयल आता है और जितने कम मेहनताने पर ये तैयार हो जाता है और उतनी ही ऊँची कीमत पर डीलर व दुकानदार ग्राहकों को बेचतें हैं। हाथ की इतनी सफाई व आकर्षक कसीदाकारी देखकर ग्राहक मुहं मांगे दाम देकर खरीदता है। मिसाल के तौर पे अगर कोई परिधान १००० में तैयार होता है तो दुकानदार इसे दुगने दाम में बेचकर डबल मुनाफा कमाता है। लेकिन यहाँ यह सब लिखने का क्या तात्पर्य है.....ज़री कारीगर को इस मुनाफे से क्या मिलता है?कुछ नहीं ....इस लिए ये हुनर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम इस बात ने कारीगरों के हौसले को तोडना शुरू कर दिया है अब वे इस काम को करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं। जो कम उन्हें दो वक़्त की रोटी ठीक से नहीं दे पा रहा हो उसे करने से क्या फ़ायदा है। इसलिए ये लोग अपने लिए दूसरा रोज़गार तलाशने लगे हैं। लेकिन उनके पास रोज़गार का कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है। बारीक़ सुई पकड़ने के आदि हाथ कोई दूसरा औजार कैसे पकड़ सकते हैं। ज़री कारीगर ये रोज़गार अपनी ख़ुशी से छोड़ने को तैयार नहीं है। अगर उन्हें भी अपनी मेहनत की अच्छी मजदूरी मिले तो वे इस खूबसूरत कला को आगे कई वर्षों तक चला सकतें हैं। इस कला के सामने एक समस्या और भी है कि भावी पीढ़ी इसमें कोई रूचि नहीं दिखा रही है इनका मानना है कि जो काम हमारे बाप-दादा ने किया बस उतना ही काफी है। इस रोज़गार ने उनका ही क्या भला किया ????इसमें हमारा कोई भविष्य नहीं है। पुराने कारीगरों के बच्चे अपने पुश्तैनी काम से दूर होते जा रहे हैं,जिससे ज़री कारीगरी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
कुछ अपनों की उपेक्षा,कुछ सरकार की उपेक्षा ने इन हुनरमंदों का मनोबल तोड़ सा दिया है। मुग़ल काल में नूर जहाँ ने जिस कला को प्रोत्साहन देकर उसे आज तक जिन्दा रखा ,,आज सरकार उसकी अनदेखी कर उसे लुप्त होने पर विवश कर रही है। बदलते फैशन के इस युग में चाहे कितनी भी क्रांति क्यों न आ जाए लेकिन ज़री-ज़रदोज़ी के बिना फैशन पूरा नहीं होता। ज़री कारीगरों का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि इन कारीगरों को बचाया जाए तभी हम इस नायाब कला को सहेज कर रख पाएंगे।
पूजा सिंह आदर्श