Thursday 21 April 2011

फीकी पड़ती जा रही ज़री कारीगरी की चमक......


हमारे देश में बहुत सी जगह ऐसी हैं जिनकी पहचान या तो वहां पैदा होने वाली चीजों से होती है या फिर वहां के उद्दयोग -धंधो सेजैसे-लखनऊ अपनी चिकिनकारी,अलीगढ अपने ताला उद्दयोग,मेरठ कैंची खेल का सामान बनाने के लिए,मुरादाबाद पीतल उद्दयोग के लिए विश्व-प्रसिद्ध है ठीक वैसे ही उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर बरेली जो बांस-बरेली के नाम से भी जाना जाता है अपने ज़री-ज़रदोज़ी के काम के लिए भी शुरू से ही जाना जाता है। वैसे तो बरेली में और भी उद्दयोग धंधे हैं जिनके लिए बरेली विश्व-प्रसिद्ध है...आइये एक नजर इन् पर भी डालते हैं-बांस(केन)उद्दयोग,इमारती लकड़ी से बना फर्नीचर उद्दयोग,पतंग व मांझा उद्दयोग और बेहद प्रसिद्ध आँखों में डाले जाने वाला सुरमा। इन सबके ऊपर बरेली की असली पहचान है यहाँ की परंपरागत ज़री-ज़रदोज़ी...जिसके कारण ही बरेली को नाम दिया गया ज़री नगरी। ज़री के काम की खासियत ये होती है कि ये काम हाथ से किया जाता है,इसमें किसी भी तरह की मशीन का कोई इस्तेमाल नहीं होता है। हाथ से किया गया ये काम इतना बारीक़ और खूबसूरत होता है कि कोई भी इसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकता। हाथ से की गई इस कारीगरी में एक डिजाइन को पूरा करने में कई-कई दिन लग जाते हैं। लकड़ी का अड्डा(फ्रेम)बनाकर उसमे सलमा-सितारे,कटदाना,कसब,नलकी,मोती,स्टोन आदि बड़ी सफाई टांके जाते है। जितने कम दामो पर इसका मैटीरीयल आता है और जितने कम मेहनताने पर ये तैयार हो जाता है और उतनी ही ऊँची कीमत पर डीलर व दुकानदार ग्राहकों को बेचतें हैं। हाथ की इतनी सफाई व आकर्षक कसीदाकारी देखकर ग्राहक मुहं मांगे दाम देकर खरीदता है। मिसाल के तौर पे अगर कोई परिधान १००० में तैयार होता है तो दुकानदार इसे दुगने दाम में बेचकर डबल मुनाफा कमाता है। लेकिन यहाँ यह सब लिखने का क्या तात्पर्य है.....ज़री कारीगर को इस मुनाफे से क्या मिलता है?कुछ नहीं ....इस लिए ये हुनर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम इस बात ने कारीगरों के हौसले को तोडना शुरू कर दिया है अब वे इस काम को करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं। जो कम उन्हें दो वक़्त की रोटी ठीक से नहीं दे पा रहा हो उसे करने से क्या फ़ायदा है। इसलिए ये लोग अपने लिए दूसरा रोज़गार तलाशने लगे हैं। लेकिन उनके पास रोज़गार का कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है। बारीक़ सुई पकड़ने के आदि हाथ कोई दूसरा औजार कैसे पकड़ सकते हैं। ज़री कारीगर ये रोज़गार अपनी ख़ुशी से छोड़ने को तैयार नहीं है। अगर उन्हें भी अपनी मेहनत की अच्छी मजदूरी मिले तो वे इस खूबसूरत कला को आगे कई वर्षों तक चला सकतें हैं। इस कला के सामने एक समस्या और भी है कि भावी पीढ़ी इसमें कोई रूचि नहीं दिखा रही है इनका मानना है कि जो काम हमारे बाप-दादा ने किया बस उतना ही काफी है। इस रोज़गार ने उनका ही क्या भला किया ????इसमें हमारा कोई भविष्य नहीं है। पुराने कारीगरों के बच्चे अपने पुश्तैनी काम से दूर होते जा रहे हैं,जिससे ज़री कारीगरी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
कुछ अपनों की उपेक्षा,कुछ सरकार की उपेक्षा ने इन हुनरमंदों का मनोबल तोड़ सा दिया है। मुग़ल काल में नूर जहाँ ने जिस कला को प्रोत्साहन देकर उसे आज तक जिन्दा रखा ,,आज सरकार उसकी अनदेखी कर उसे लुप्त होने पर विवश कर रही है। बदलते फैशन के इस युग में चाहे कितनी भी क्रांति क्यों न आ जाए लेकिन ज़री-ज़रदोज़ी के बिना फैशन पूरा नहीं होता। ज़री कारीगरों का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि इन कारीगरों को बचाया जाए तभी हम इस नायाब कला को सहेज कर रख पाएंगे।
पूजा सिंह आदर्श

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