Thursday 15 December 2011

एफडीआई /वॉल मार्ट आखिर माज़रा क्या है...????


भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले महंगाई -भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा काला धन कुछ ऐसे मुद्दे थे जिन पर संसद में शोर-शराबा होना तय माना जा रहा था लेकिन हुआ यह कि सरकार ने एफ.डी.आई या आम आदमी की भाषा में वॉल मार्ट कहा जा रहा है का नया शगूफा छोड़कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है
अब स्तिथि यह है कि जन साधारण की समझ में यह नहीं रहा कि अपनाया जाये या ठुकराया जायेअसल मुद्दे पर आने से पहले इस देश की राजनीति की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करना जरूरी है। सांसदों के वेतन और भत्तों को बढ़ाने का प्रस्ताव हो तो संसद में अदभुत एकता का मंज़र दिखाई पड़ता है लेकिन सरकार..द्वारा प्रस्तुत किसी भी प्रस्ताव या सुझाव का आँख बंद करके विरोध करना विपक्षी अपना राजनैतिक धर्म मानते हैं।
एफ.डी आई या वॉल मार्ट के मुद्दे पर भी ऐसा ही कुछ हुआ है। एफ डी आई के मुद्दे को अचानक उछालने के पीछे सरकार की क्या नीयत या मजबूरी थी यह अभी स्पष्ट नहीं थी !लेकिन इतना तो साफ़ नज़र आ रहा है कि सत्ता पक्ष के लोग जी जान से किसानो और उपभोक्ताओं को यह समझाने में जुटें हैं कि एफ डी आई से किसानो को उन के उत्पाद का अच्छा दाम मिलेगा और उपभोक्ता को सस्ते दामों पर अच्छा सामान मिलेगा क्योकि इस कारोबार में बिचौलिए नहीं होंगे। लेकिन हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने को देखते हुए इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है...
हम सभी जानतें हैं कि इस देश की ७०% जनता गाँव में बसती है जिसका मुख्य व्यवसाय खेती है। इस ७०% में से ६०% छोटे वर्ग के किसान हैं जिनके पास ट्रैक्टर या थ्रेशर जैसे कृषि के आधुनिक यन्त्र नहीं हैं। देश के बहुत सारे भूभाग की खेती वर्षा पर निर्भर है जहाँ मोटे अनाज ही उगाये जा सकतें हैं । इन हालात में कितने प्रतिशत किसान लाभान्वित होंगे इसका सर्वेक्षण कराया जाना आवश्यक है।
वॉल मार्ट किसी भी किसान से आँख बंद करके उसका उत्पाद नहीं खरीदेगा। उत्पादों की खरीद के मानक तैयार किए जायेंगे और जो उत्पाद उन मानकों पर खरे उतरेंगे केवल उन्ही की खरीद होगी,बाकी उत्पाद तो वही पुरानी मंडियों में बिचौलियों के माध्यम से बिकेगा। अतः एक आम किसान को कितना फायदा होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
अब बात करतें हैं खुदरा व्यापारियों की,उनका कहना है कि वॉल मार्ट के आने से उनके कारोबार पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है क्योकि उनके ग्राहकों में हर वर्ग के लोग शामिल हैं और हर क्वालिटी का सामान बिकता है और ७०% से ८०% तक ग्राहक उधार सामान खरीदतें हैं इसलिए ग्राहकों का एक बड़ा और खास वर्ग हर हाल में हमारे पास ही आयेगा ,वॉल मार्ट में हमारे जैसी सुविधाएँ नहीं होंगी। इन बातों में भी दम है । कुछ उच्च वर्ग के लोगों की इच्छा है कि बढ़िया क्वालिटी का सामान....विशेषकर ब्रांडेड कपडे,जूते,परफ्यूम आदि हमारे देश में भी उपलब्ध हो जाएँ तो विदेशों में रहने वाले मित्रों या रिश्तेदारों को कष्ट देने की जरुरत न पड़े।
मेरे हिसाब से एफ डी आई के कारण न तो देशवासियों को कोई विशेष लाभ होगा और न कोई नुकसान होगा। कुछ गिने-चुने बिचौलियों के मुनाफे में कमी जरूर आ सकती है। इस मसले पर खुली बहस होने के बाद ही कोई निर्णय लिया जाये तो वही देश हित में होगा।
पूजा सिंह आदर्श

Saturday 19 November 2011

ऑनर किलिंग:इंसानियत पर धब्बा..


अभी हाल में ही मथुरा ऑनर किलिंग मामले में अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया,जिसमे आठ लोगों को फाँसी की सजा तथा सत्ताइस को उम्र कैद की सजा सुना दीये बात अलग है कि ये फैसला आते-आते २० साल लग गए। मेहराना के बहुचर्चित ऑनर किलिंग मामले में अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए इस जघन्य तिहरे हत्याकांड के लिए ८ दोषियों को फाँसी और २७ को उम्र कैद की सजा सुनाई। इन लोगो ने गाँव में हुई पंचायत में पंच की भूमिका निभाते हुए,स्वर्ण युवती और दलित प्रेमी सहित तीन लोगों को सरेआम फाँसी पर लटका दिया था और बाद में उनके शवों को शमशान ले जाकर जला दिया। मुकदमे की सुनवाई के दौरान १३ आरोपियों की मौत हो चुकी है। फाँसी की सज़ा पाने वालों में एक जिला स्तरीय अधिकारी भी शामिल है। देश के न्याय के इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी जिला स्तरीय अधिकारी को फाँसी की सज़ा हुई हो।
ऑनर किलिंग या सम्मान के लिए हत्या,जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है और सभी वाकिफ हैं,बताने की जरुरत नहीं है लेकिन यहाँ एक बार फिर बताने की जरुरत महसूस हो रही है कि कैसे अपनी झूठी शान और ऊँची नाक के लिए लोग मासूम लोगों की जान ले लेते हैं। सम्मान हत्या वह हत्या है जिसमे किसी परिवार ,वंश या समुदाय के किसी सदस्य की (आमतौर पर एक महिला)की हत्या उसी परिवार,वंश या समुदाय का एक या एक से अधिक सदस्य (अधिकतर पुरुष)द्वारा की जाती है। और हत्यारे (आमतौर पर समुदाय के अधिकतर सदस्य )इस विश्वास के साथ इस हत्या को अंजाम देते हैं कि मरने वाले सदस्य के कृत्यों के कारण उस परिवार,वंश,या समुदाय का अपमान हुआ है। अपमान की यह धारणा सामान्यतः कई कारणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है-
१-परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ जाकर अपनी मर्ज़ी से प्रेम-विवाह करना।
२-यदि विवाह अंतरजातीय हो अथवा एक ही गोत्र में किया गया हो(हिन्दुओं में)।
३-परिवार द्वारा नियत विवाह से इंकार करना।
४-समुदाय द्वारा निर्धारित वस्त्र संहिता का उल्लंघन कर कोई अन्य परिधान पहनना।
५-विवाह पुर्व या विवाहोपरांत किसी अन्य पुरुष या महिला के साथ यौन-सम्बन्ध स्थापित करना।
ये हत्याएं इस धारणा का परिणाम है कि कोई भी व्यक्ति जिसके किसी कृत्य के कारण यदि उसके कुल या समुदाय का अपमान होता है तो उस कुल के सम्मान की रक्षा के लिए उस व्यक्ति विशेष की हत्या जायज़ है।
संयुक्त राष्ट्र जनसँख्या कोष(यू.एन.पी.ए)का अनुमान है कि दुनिया भर में सालाना ५००० के लगभग हत्याएं,सम्मान हत्याएं होतीं हैं। जिनमे से अकेले १००० हत्याएं भारत में होतीं हैं।जिसमे प.उत्तरप्रदेश,पंजाब ,हरियाणा,और महाराष्ट्र सबसे आगे है. आंकड़े चौकाने वाले जरूर हैं...कि दुनिया भर में होने वाली ५००० सम्मान हत्याओं में से १००० हत्याएं सिर्फ हमारे देश में होतीं हैं। एक बेहद गंभीर विषय जिस पर त्वरित कार्यवाही की और संजीदगी से सोचने की जरुरत है।
मानव अधिकार संस्था सम्मान हत्या को कुछ इस तरह परिभाषित करती है...."सम्मान की रक्षा के लिए किए गए अपराध ,हिंसा के वो मामले हैं,जिन्हें परिवार के पुरुष सदस्यों ने अपने ही परिवार की महिलाओं के खिलाफ इसलिए अंजाम दिया है क्योंकि उनके अनुसार उस महिला सदस्य के किसी कृत्य से समूचे परिवार की गरिमा और सम्मान को ठेस पहुँचती है। इसका कारण कुछ भी हो सकता है,जैसे-अपनी मर्ज़ी से प्रेम-विवाह करना,परिवार के खिलाफ जाना,किसी यौन अपराध का शिकार बनना,पति से (प्रताड़ना देने वाले पति से भी)तलाक की मांग करना या फिर अवैध सम्बन्ध रखने का संदेह। केवल यह धारणा ही उस महिला सदस्य पर हमले को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त है कि उसके किसी कदम से परिवार की इज्ज़त को बट्टा लगा है। "
मानव अधिकार संस्था ने ऑनर किलिंग को सही परिभाषित किया है। समाज के ठेकेदार बनकर जो लोग बैठे हैं उन्हें तो यही लगता है कि जो उनकी दो कौड़ी की झूठी इज्ज़त को को बट्टा लगाये उसे मौत के घाट उतार दो। किसी की भी जिन्दगी छीनने का हक पता नहीं इन लोगों को किसने दिया???किसी से प्यार करना या अपनी मर्ज़ी से किसी को अपना जीवन साथी बनाना क्या वाकई इतना बड़ा गुनाह है ,जिसके लिए किसी को इतनी बेरहमी के साथ सज़ा-ए-मौत दे दी जाये। ........एक सवाल समूचे समाज के सामने ,जिससे न तो भागा जा सकता है और न ही मुंह मोड़ा जा सकता है????? क्योंकि ये वो नासूर बन चुका है जिसमे बदबूदार मवाद पनप गया है ,जब तक इसकी सफाई नहीं की जाएगी ये टीस देता रहेगा पूरे समाज को। और इसकी सफाई के लिए हमें हिम्मत और पहल दोनों करनी होगी। समाज ठेकेदारों को उसी भाषा में समझाना होगा जो उनके समझ में आती है। किसी को जिन्दगी दे नहीं सकते तो फिर किसी की जीती-जागती,हंसती-खेलती जिन्दगी को आग में जिन्दा जलाने या फिर सरेआम फाँसी पर लटका देने का हक इन ज़ालिम हुकुमरानों को किसने दिया ????? जिला अपर सत्र न्यायालय ने इसे जघन्यतम कृत्य माना है और यकीनन ये घिनौना कार्य है। न जाने कितने मासूम इस झूठी शान की भेंट चढ़ गए चाहे वो नितीश कटारा हो,चाहे आरुषि हो या फिर निरुपमा ये वो बहुचर्चित केस हैं जो कही न कही ऑनर किलिंग से जुड़े हैं और जिन्होंने पूरे देश को हिला कर रख दिया था और आज भी ये अपनी मौत का इन्साफ मांग रहे हैं।
२० साल से चल रहे इस मामले में अब जाकर कही फैसला आया है. इतने वर्ष लग गए इसे आने में कि फैसला आने से पहले ही कुछ लोग स्वर्गवासी हो गए । तो कहीं न कहीं हमारी कानून व्यवस्था भी इस तरह के अपराधों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। गुनाह करने वाले जानते हैं कि पहली बात तो ये कि वो पकडे नहीं जायेंगे और अगर पकडे भी गये तो फिर लम्बी मुकदमेबाजी होगी जिसका अंजाम भी किसने देखा है। बहरहाल जो भी है ये फैसला यकीनन ऐतिहासिक है जुर्म करने वाले कम से कम एक बार सोचेंगे तो जरूर कि अगर ऐसा कुछ भी किया तो अंजाम यही होगा।
जियो और जीने दो पर यकीन करना पता नहीं कब सीखेंगे लोग....जिन्दगी ऊपरवाले की दी हुई नियामत है इसे किसी को भी छीनने का कोई हक नहीं है। प्यार करना कोई गुनाह तो नहीं..इबादत है। इसके लिए मौत कि सज़ा क्यों ???
पूजा सिंह आदर्श

Monday 3 October 2011

कन्या पूजन करें लेकिन उसे जीने का हक भी तो दें.....


शारदीय नवरात्र चल रहे हैं,आज अष्टमी है,बहुत सारे लोग आज के दिन उपवास पूरा करके कन्या पूजन करते हैं। छोटी-छोटी कंजकों को लाल चुनरी ओढाकर,उनके पैर छूकर उनको जिमाते हैं। नारी को माँ दुर्गा का रूप माना जाता है। कहा जाता है कि नारी में उतनी ही शक्ति है जिनती कि माँ दुर्गा में ..और है ..इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है। औरत जब अपनी पे आ जाये तो क्या नही कर सकती। इतिहास गवाह है इस बात का कि जब -जब महिलाओं को अग्नि -परीक्षा देनी पड़ी है उसने सिद्ध किया है अपने आपको।लेकिन सवाल ये उठता है कि परीक्षा सिर्फ महिलाओं को ही क्यों देनी पड़ती है ??????और उनसे ही क्यों मांगी जाती है ?? पुरुष क्या धरती पर सदैव महापुरुष या भगवान का रूप लेकर आतें हैं ?? हमारे देश में महिलाओं को देवी का दर्ज़ा दिया जाता है,विभिन्न रूपों में उसकी पूजा होती है।लेकिन इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जैसा हम कहते हैं ,वैसा करते नहीं हैं। इतिहास में अगर महिलाओं की वीर गाथा मौजूद है तो उनपर हुए अत्याचार भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं। और यही दस्तूर आज तक कायम है । नारी की पूजा किए जाने वाले देश में आज उसकी हालत बाद से बदत्तर हो गई है।
देश तरक्की कर रहा है,बहुत कुछ बदलाव भी आया है। आज लड़कियां पढ़-लिख रही हैं ,अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं । मर्दों के वर्चस्व वाले समाज में अपनी जगह बनाने कि कोशिश भी कर रही हैं। ये सब तो ठीक है लेकिन ये सिक्के का बस एक ही पहलू है....दूसरी तरफ वो भयानक तस्वीर है,जिसे कोई देखना ही नही चाहता...चलिए रूबरू करातें हैं आपको इस तस्वीर से। जिस देश में लड़किओं को देवी मानने का दावा किया जाता है ,उसी देश के एक शहर में १०० से ऊपर अजन्मी बच्चियों के भ्रूण मिलते हैं , जिन्हें चील-कौव्वे और कुत्ते नोच-नोच कर खाते हैं। देश का गौरव कही जाने वाली यहाँ कि राजधानी में हर १ घंटे में ३ बलात्कार होतें हैं। लड़किओं और महिलाओं के साथ छेड़खानी किस शहर,किस गली,किस नुक्कड़ पर रोज़ नही होती। घरेलू हिंसा का शिकार होने वाली भी कोई और नही महिलाएं ही होती हैं जो चुपचाप अपने ऊपर होने वाली प्रताड़ना को सहती रहती हैं और ये चुप्पी शायद ही कभी टूटती हो। पढने-लिखने से लेकर जिन्दगी के हर छोटे-बड़े फैसले में कुर्बानी सिर्फ लड़किओं को ही देनी पड़ती है। न उन्हें कानून पता है और न ही अपने अधिकार और न ही कोई उन्हें ये सब बताने की जरुरत समझता है।
अब जहाँ देवी स्वरुप नारी पर इतने अत्याचार हों,उसके साथ इतने अन्याय होते हों,जहाँ उसे जन्म लेने तक की अनुमति न हो...वहां कन्या के रूप में उसकी पूजा करना ढोंग मात्र नही लगता। नवरात्रि में अष्टमी और नवमी के दिन ही कन्याओं की याद क्यों आती है....कन्या पूजने वालों को ????क्यों बाकि का पूरा साल अपमान और अत्याचार करते हुए ही निकाल देना तो जैसे जन्म सिद्ध अधिकार है हमारा। जब महिलाएं अपने ही देश ,अपने ही घर में सुरक्षित नहीं है तो फिर आगे कुछ कहना व्यर्थ है। हमें अपने आप को सभ्य कहने का कोई हक नही है अगर हम महिलाओं का सम्मान नहीं कर सकते। हम वास्तव तभी तरक्की करेंगे जब हमारे देश की आधी आबादी यानि महिलाएं बिना किसी डर के ,बिना किसी दवाब के और भयमुक्त वातावरण में जी सकें और खुली हवा में आज़ादी के साथ सांस ले सके। और ये तभी संभव हो सकेगा जब हम अपने अंदर ही बदलाव लायेंगे ,अपनी सोच को बदलेंगे । जब हमें ये अहसास होगा कि औरत भी इंसान है उसकी भी अपनी भावनाएं हैं ,जब उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती है तो उसे भी दुःख होता है ।
बच्चियों को जन्म लेने दें,उनकी हत्या न करे ,ये सबसे बड़ा गुनाह है , ये हमें समझना होगा । जैसे हम अपने घर की बहू-बेटियों को इज्ज़त देतें हैं वैसे ही दूसरों की बेटियों को भी दे । इसके लिए जरूरी है कि हम पहले अपने घर की बेटियों को सम्मान दें। उन्हें जीने का हक दें ,अपने सपनो को पूरा करने का हक दें । तभी कन्या पूजन करने का अधिकार है हमें । अन्यथा इस दिखावे की कोई जरुरत नहीं है।
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday 21 September 2011

मिड-डे-मील.या आत्मसम्मान का क़त्ल ..


साक्षरता की कमी या यूँ कहे कि निरक्षरता हमारे देश की सबसे बड़ी गंभीर समस्या है ...आज भी गाँव-देहात की बात तो छोड़ दें ,शहरों में भी बच्चे स्कूल नहीं जाते या अगर गए भी तो कक्षा ५ के बाद स्कूल जाना बंद। माध्यमिक और उच्च शिक्षा तो बहुत दूर की कौड़ी है। हम आज भी विकासशील देशों की श्रेणी में आते हैं... क्यों????इसके पीछे साक्षरता की कमी बहुत बड़ा कारण है। जिस देश के नौनिहाल ही अनपढ़ होंगे उस देश का मुस्तकबिल कैसा हो सकता है??एक संजीदा सवाल ,,पूरे समाज के सामने ??
देर से ही सही लेकिन ये बात हमारी सरकार को समझ में आई। इसीलिए सरकार ने ग्यारवीं पंचवर्षीय योजना में साक्षरता को शामिल कर लिया है। अब देश में संपूर्ण साक्षरता लक्ष्य बन गई है।कक्षा ५ तक प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया कि कम से कम कक्षा ५ तक सभी बच्चे स्कूल जाये और शिक्षा ग्रहण करें। इसलिए सर्व शिक्षा अभियान योजना शुरू की गई...जिसका स्लोगन है ....सब पढ़ें,सब बढ़ें। यहाँ तक तो सब ठीक है कि इस समस्या पर ध्यान दिया गया ,योजना बनाई गई लेकिन सवाल ये उठता है कि कोरी योजनायें बनाने से क्या होगा ??स्कूल में पढने के लिए बच्चे भी तो आने चाहिए। और ये एक बहुत बड़ी चुनौती है.....कि बच्चों को पढने के लिए कैसे प्रेरित किया जाये ??बच्चों का स्कूल आना बेहद जरूरी है इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए केंद्र व राज्य सरकार ने एक योजना शुरू की..जिसका नाम है मिड-डे-मील यानि मध्यान भोजन। इस योजना का उद्द्येश्य है स्कूल में बच्चों की संख्या को बढ़ाना....सरकार का ऐसा मानना है कि यदि स्कूल में बच्चों को मुफ्त भोजन दिया जाये तो बच्चे पढने आएंगे। इसके लिए स्कूल में बाकायदा एक रसोई,एक कुक की व्यवस्था की गई और इस बात पर भी ध्यान देने को कहा गया कि बच्चों को दिया जाने वाला भोजन पौष्टिक और स्वच्छ होना चाहिए। शिक्षकों को भारी निर्देश भी दिए गए कि ये सारी व्यवस्था एकदम सुचारू रूप से चलनी चाहिए अन्यथा शिक्षक नप जायेंगे।
योजना लागू हुई विवादों के साथ आगे भी बढ़ी और आज भी चल रही है.....लेकिन सबसे बड़ा सवाल यहाँ यह उठता है कि क्या मिड-डे -मील योजना वास्तव में बच्चों के हित में है.. ?????क्या सिर्फ खाना बाँट देने से बच्चे स्कूल आते हैं.. ??अगर आते भी हैं तो क्या पढने आते हैं...????और क्या लाइन में खड़ा करके खाना बाँट कर हम उनको भीख नही दे रहे...????क्या हम बच्चों के अंदर का आत्मसम्मान खत्म नही कर रहे...???क्या मुफ्तखोरी की आदत नही डाल रहे उनमे....???प्राथमिक स्कूल में पढने वाले बच्चे खाने के लिए लाइन में लगे हुए ऐसे मालूम देते हैं, जैसे मानो किसी लंगर की लाइन में खड़े हों। बच्चे का मन एक कोरी स्लेट की तरह होता है जिसपर जो चाहो वो लिख दो। बच्चा वही सीखता है जो वह देखता है और अनुभव करता है। जब उसे बिना कुछ किए ही खाने की आदत पड़ जाएगी फिर क्या होगा???कक्षा ५ के बाद मिड-डे -मील कहाँ से आयेगा..??क्या ये नन्हे-मुन्हों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं है ???ऐसे बहुत सारे सवाल हैं। जिनका उत्तर अभी किसी की समझ में नहीं आ रहा है...लेकिन इसके दूरगामी परिणाम हमें एक दिन जरूर दिखाई देंगे। बच्चों को भोजन देने की बात ठीक है लेकिन मुफ्त में नहीं ,अगर उनको खाना देना ही है तो उसके बदले में उनसे श्रम करवाया जाना चाहिए कोई भी ऐसा काम जो उनके स्तर का हो,जैसे-फुलवारी में काम कराना,कक्षाओं को साफ़ रखना,स्कूल की साफ़-सफाई का ध्यान रखना,खाना बनवाने में मदद करना आदि। जिसके बदले में उन्हें खाना दिया जाये तो उनके अंदर का आत्मसम्मान मरना नही चाहिए बल्कि उन्हें ऐसा लगे कि हमने कुछ काम किया है तब उसके बदले में हमें रोटी मिली है। मुफ्त में खाना बांटने से बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहें हैं हम। इसके साथ ही न तो बच्चों को अच्छा साफ़-सुथरा और पौष्टिक भोजन ही मिल पाता है। खाने के नाम पर सिर्फ खाना-पूरी हो रही है ये तो सभी अच्छे से जानते हैं और देख रहे हैं ।
बच्चे हमारे देश का सुनहरा मुस्तकबिल हैं। उनके ही नाजुक कंधो पर देश भार है। ये कंधे इतने मजबूत होने चाहिए कि अपने देश के भविष्य को संभाल सकें। मेहनत और आत्मसम्मान के साथ कमाई हुई रोटी को निवाला बना सकें।
पूजा सिंह आदर्श

Saturday 17 September 2011

अपने बच्चे को मौत नहीं,जिन्दगी दीजिये.....

तेज रफ़्तार आज के दौर की पहचान बन चुकी हैधीमे चलने वालों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है, ही उनकी कोई क़द्र हैऔर तेज़ रफ़्तार को ही अपनी जिन्दगी बनाने वाले कोई और नहीं है बल्कि आज के युवा हैं.....युवाओं की जिन्दगी बन चुकी है...तेज़ रफ़्तार ....जिसकी उन्हें नशे की तरह इस कदर आदत पड़ चुकी है..कि इस नशे के बिना सुकून नहीं मिलता। युवाओं के लिए ये नशा है... मोटरबाइक पर फर्राटे के साथ उड़ान भरने का और हवा के साथ बातें करने का। आजकल युवाओं सर पर एक अजीब सा भूत सवार है......अपनी बाइक को इतना तेज़ दौड़ाने का,,कि अपनी अनमोल जिन्दगी को भी दावं पर लगाने से नहीं चूकते। उन्हें इस बात का जरा भी अहसास नही कि तेज़ रफ़्तार से सड़कों पर दौड़ने वाली ये बाइक उनकी जरा सी लापरवाही के कारण उन्हें मौत के मुंह में भी धकेल सकती है। जैसा कि अभी पूर्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन के साथ हुआ,बाइक पर सवार उनके जवान और होनहार बेटे अयाजुद्दीन की ऐसी ही एक सड़क दुर्घटना में दर्दनाक मौत हो गई। उनके साथ उनका एक फुफेरा भाई भी इस घटना में मौत का शिकार हुआ। किसी भी परिवार में एक साथ दो-दो जवान मौत का हो जाना किसी कहर से कम नहीं है और किसी भी इंसान को अंदर तक तोड़ देने के लिए काफी है। ये वो दर्द है जिसकी टीस जिन्दगी भर तक उठेगी।
लेकिन ये क्यों हुआ ????क्या ये जानना जरूरी नहीं है ???बिल्कुल है ....माता-पिता अपने बच्चे को लाड में आकर बाइक का वो तोहफा दे देते हैं जो शायद उनकी मौत की वजह बन जाता है।माँ-बाप ने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा होता कि अपने बच्चे जो तोहफा वो लाकर दे रहे हैं वो उनसे उनका बच्चा ही छीन लेगा???आजकल बच्चा १६-१७ साल का हुआ नही कि उसे चलाने के लिए मोटरबाइक चाहिए। बाइक पर चलना फैशन के साथ-साथ एक स्टेटस सिम्बल बन गया है। लड़के सोचते हैं कि १०वी पास करते ही माँ-बाप उन्हें बाइक दिलवा दें,जिससे उनके दोस्तों के बीच उनका रुतबा और बढ़ जाये...बाइक लेने के साथ ही इन युवाओं का एक और शौक भी परवान चड़ता
है और वो है....मोटरबाइक के साथ खतरनाक करतब दिखाना यानि स्टंटबाज़ी करना। इस शौक का जुनून इस कदर है कि इन्हें अपनी जान तक की कोई परवाह नहीं होती।
इनदिनों बाज़ार में तरह-तरह की मोटरबाइक से पूरा बाज़ार पटा हुआ है......५० हज़ार रु तक से लेकर १५ लाख रु तक की बाइक बाज़ार में उपलब्द है । जिसमे पावर इंजन,पावर ब्रेक,हाई स्पीड और न जाने कितनी खूबियाँ हैं। जो लड़कों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।एक से एक बढिया और खूबसूरत बाइक बाज़ार में मौजूद है। जिसे देखते ही किसी भी बाइक शौक़ीन का दिल ललचा जाए। बाइक चलाने के शौक़ीन युवा ग्रुप बनाकर रात में सुनसान सड़कों पे रेस लगाने निकलते हैं। और यही सुनसान सड़के बनती है उनके स्टंट दिखाने की जगह। और कभी-कभी यही सड़के इनकी जान की दुश्मन बन जाती हैं और निगल जाती है कई मासूम जिन्दिगियाँ । अपने जरा से शौक और जुनून को पूरा करने के लिए लोग अपनी जिन्दगी तक की परवाह नहीं करते। यहाँ कहने का ये मतलब बिल्कुल भी नही है कि बाइक हमेशा ही खतरनाक होती है...हमारे देश में अगर दुपहिया वाहन की बात करे तो बाइक लोगो की पहली पसंद है ....लाखों लोग रोज़ बाइक पर सफ़र करते हैं...अगर सावधानीपूर्वक चलते हैं तो जान बच जाती है और सही सलामत घर पहुँच जाते हैं...और अगर जरा सी भी लापरवाही हुई तो सीधे अस्पताल या फिर शमशान ही पहुँचते हैं।सड़क दुर्घटनाओं की अगर बात करे तो रोज़ कई लोग इसमें अपनी जान गवां देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि सड़क दुर्घटना में मरने वालो की संख्या दुपहिया वाहन वालो की ज्यादा होती है। क्योकि तेज़ स्पीड में अगर ब्रेक लगाये तो संतुलन बिगड़ना लाज़मी है।
अपने बच्चों को तो बाइक का चस्का बिल्कुल न लगने दें। उन्हें इतनी समझ होनी ही चाहिए कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। अपने बच्चे को,जिगर के टुकड़े को जिन्दगी दे न कि मौत का सामान। नहीं तो जिन्दगी भर का दुःख उठाना पड़ सकता है । जिसकी भरपाई नामुमकिन है। अगर कुछ बचता है तो वो है आँखों में पानी.....और कभी न भरने वाला जख्म....
पूजा सिंह आदर्श

Sunday 8 May 2011

मदर्स डे पर विशेष:माँ की खिदमत ही इबादत है.....


माँ......नाम है एक खूबसूरत एहसास का,माँ...जिसमे समाई है पूरी दुनियाजिसकी तुलना इस जहाँ में किसी और से नहीं की जा सकतीमाँ के बारे में क्या लिखूं???? कहाँ से शुरू करूँ ,कुछ समझ में नहीं आताहमारा जन्म ही जिसके अंश से हुआ हो,जिसने अपने खून से हमें सींचा हो, महीने हमें अपने अंदर छुपा कर रखा हो,अपने निवाले से पहले हमें खिलाया हो,हमें बोलना सिखाया हो,ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया हो,हमारी बीमारी में,हमारी परेशानी में चिंता की सबसे ज्यादा लकीरे जिसके माथे पर आई हो,हमारी हर छोटी-बड़ी जरुरत का ध्यान रखा हो और बदले में अपने बच्चों से कभी कुछ नहीं माँगा और न कभी कोई उम्मीद की। उसके बारें में क्या लिखूं जो बस देना जानती है,त्याग करना जानती है। बच्चों की मुस्कान के साथ जिसकी मुस्कान और तकलीफ के साथ तकलीफ जुडी हो....उस माँ के बारें में लिखने से ज्यादा कोई कठिन कार्य नहीं है। माँ बच्चों के सबसे निकट होती है ,,इसलिए उनकी सबसे अच्छी दोस्त भी होती है।
८ मई को मदर्स डे मानते हैं हम....एक दिन माँ के नाम......अच्छा प्रचलन है है...होना भी चाहिए एक दिन माँ के लिए। जब साल के ३६४ दिन वो हम सब को देती है तो एक दिन उसे भी समर्पित होना चाहिए। इस दिन कुछ स्पेशल करतें हैं बच्चे माँ के लिए,उसके लिए कुछ खास बनातें हैं,उसे उपहार देते हैं,प्यार व मान-सम्मान देते हैं।
इस मदर्स डे पर मेरा मन उन लोगों के लिए लिखने को किया जो माँ-बच्चों के रिश्ते को ही भूल गए हैं। जो लोग अपने माता-पिता को ही भूल गए हैं जिन माँ-बाप ने उम्र भर सिर्फ अपने बच्चों के लिए ही किया,अपना सब कुछ उन्ही पर न्योछावर कर दिया और उसके बदले में बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया या फिर उनसे अलग रहने लगे,उनसे कटने और बचने लगे। अपने माता-पिता के लिए समय नहीं है उनके पास। उस माँ के लिए समय नहीं है ,जिसके पास अपने बच्चों के लिए समय के अलावा और कुछ नहीं होता। एक माँ अपने चार बच्चों का ध्यान रख सकती है बिना किसी भेदभाव के,बिना किसी परेशानी के लेकिन चार बच्चे मिलकर एक माँ का ध्यान नहीं रख सकते। बुढ़ापे में उसे प्यार व समय नहीं दे सकते उसे दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर देते हैं। धिक्कार है ऐसी औलाद पर। दुनिया में बहुत से ऐसे माँ-बाप हैं जिन्हें अपने जीवन की सांध्य बेला में अपनों से बस उपेक्षा ही मिलती है और उन्हें किसी वृद्ध-आश्रम की शरण लेनी पड़ती है। ऐसे में मदर्स डे मनाना कितना उचित है ????
हम सभ्य समाज में रहते हुए खुद को सभ्य कहने का दावा करतें हैं। क्या वाकई हम सभ्य हैं ???विदेशों की नक़ल
करके अपने माँ-बाप को खुद से अलग कर देना,उन्हें किसी वृद्ध-आश्रम में भेज देना, ये न तो हमारी सभ्यता है और न ही हमारी संस्कृति। ऐसा विदेश में चलता है क्योंकि वहां की संस्कृति अलग है। वहां तो माँ-बाप ही बच्चों से इतने नहीं जुड़े होते तो बच्चे ही क्या जुड़ेंगे ??लेकिन हमारे यहं ऐसा करना सबसे बड़ा दुष्कृत्य है। इसके आलावा हम मदर्स डे के उपलक्ष्य में ये भी सन्देश देना चाहतें हैं कि जब माँ अपने किसी बच्चे में अंतर नहीं कर पाती,तो फिर बेटियों के साथ भेदभाव क्यों ?कन्या भ्रूण-हत्या जैसा जघन्य अपराध एक माँ कैसे कर सकती है?बेटियां होंगी तभी तो माँ होगी। जब बेटिओं का ही अस्तित्व मिटा दोगे तो ....मदर्स डे कहाँ से मनाओगे??बेटियों को भी जीने दीजिए उन्हें भी हक है... इस दुनिया में अपनी ऑंखें खोलने का।
माँ तो एक सुखद छाँव है,जिसके नीचे बच्चों को आसरा मिलता है। एक दिन माँ के नाम नहीं बल्कि अपनी तमाम जिन्दगी भी उसके नाम कर दे तो कम है। हर दिन उसका है,उसकी खिदमत में ही पूरी जिन्दगी बिता दें तो भी उसका क़र्ज़ नहीं चुका पाएंगे। माँ के क़दमों के नीचे जन्नत होती है,उसकी खिदमत खुदा की इबादत है। यही इबादत हमें जन्नत का रास्ता दिखाती है और माँ की दुआएं हमें बुलंदियों तक पहुँचाती है।माँ के बारें में जनाब मुनव्वर राना ने क्या खूब लिखा है कि .....
लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फा नहीं होती।
पूजा सिंह आदर्श

Saturday 7 May 2011

मेरी माँ...सा कोई नहीं......

रिश्ते तो और भी हैं हमारी हयात में
माँ..सा मगर नहीं है कोई कायनात में,
माँ ने हमें जन्म दिया,दुनिया में पहचान दी
ऊँगली पकड़कर चलना सिखाया,
उसी ने हमें इंसान बनाया
गीले में सोकर हमें सूखे में सुलाया
अपना निवाला भी हमें खिलाया
अपने बच्चों के लिए वो सब सहती है
मगर मुहं से उफ़ तलक न कहती है
हर दुःख, हर तकलीफ वो उठाती है
क्या उसके प्यार में कोई कमी आती है
बच्चे तो उसके जिस्म का हिस्सा हैं
उनमे.. फर्क वो कहाँ कर पाती है
माँ के क़दमों के तले ही मेरी जन्नत है
उसकी खिदमत ही बस मेरी मन्नत है
माँ की गोद से बढ़कर कोई मखमल नहीं
उसकी मुस्कान से सुंदर कोई फूल नहीं
मेरी माँ की दुआओं का ताबीज साथ रहता है
हर मुसीबत से वो मेरी हिफाज़त करता है
माँ...... की जगह ले पाया है कौन ??
उसका क़र्ज़ अदा कर पाया है कौन ??
माँ...... हम कर्जदार हैं तेरे ये क़र्ज़ न उतरेगा
लेकिन माँ की खिदमत का सबाब जरूर मिलेगा।
पूजा सिंह आदर्श