Wednesday 26 May 2010

बरेली की पहचान झुमका ........

फिल्म मेरा साया में एक गीत था,झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में,ये गीत इतना मशहूर हुआ कि इसने वास्तव में बरेली को उसकी पहचान दिला दी,अब जिससे भी बरेली का जिक्र करो वो तपाक से कहता है कि अच्छा वो झुमके वाली बरेली.......बरेली को झुमके वाली का ख़िताब यूँ ही नहीं मिल गया?गीतकार ने झुमके को बरेली में ही क्यों गिराया....भोपाल या दिल्ली में क्यों नहीं?इसके पीछे भी एक कहानी है....हुआ यूँ कि प्रख्यात कवि स्व.हरिवंश राय बच्चन अपनी पत्नी तेजी बच्चन के साथ शादी पहले इलाहाबाद से बरेली आये थे और प्रख्यात साहित्यकार निरंकार सेवक जी के यहाँ पर रुके थे,हम कह सकतें हैं कि इन दोनों की दोस्ती को शादी तक पहुँचाने में सेवक जी का ही योगदान है। जब तेजी जी,बच्चन जी के साथ यहाँ आयीं तो दोनों ने एक दूसरे को जानने के लिए काफी वक़्त एक साथ बिताया जो बाद में उनकी शादी का कारण भी बना,यहाँ रहते हुए एक दिन तेजी जी के मुंह से सहसा ही निकल गया कि मेरे तो झुमके ही खो गए बरेली के बाज़ार में.........मतलब कि वो यहाँ आकर अपनी सुध-बुध ही खो बैठी,उनके कान से झुमका गिर गया और उन्हें खबर तक नहीं हुई। धीरे-धीरे यह बात चर्चा में आयी फिर रज़ा मेहदीं अली खान ने इस घटना को अपने बोल दिए,आशा भोंसले ने स्वर दिया और मदन मोहन ने अपना संगीत देकर इस गीत को सदा के लिए अमर कर दिया। तो ये कहानी है बरेली के झुमके के पीछे.........वैसे तो बरेली में और भी बहुत कुछ ऐसा है जो इस शहर की पहचान हो सकता है जैसे विश्व प्रसिद्ध दरगाह-ऐ-आला हज़रत,खानखाहे-नियाजिया,बरेली के पांच कोनो पर विराजमान भगवान् शिव के पांच रूप,धोपेश्वर नाथ,वनखंडीनाथ,मढ़ीनाथ,त्रिवटीनाथ और अलखनाथ इसके आलावा बरेली में कई प्रसिद्ध चर्च हैं जो अपनी सुंदर कला के लिए जाने जातें हैं। बरेली का सुरमा,बरेली का मांजा,पतंग ये भी तो इसकी पहचान हो सकते हैं फिर झुमका ही क्यों?
एक बार एक सज्जन से मेरी बहस हो गई कि आला हज़रत और अलखनाथ के शहर की पहचान भला एक अदना सा झुमका कैसे हो सकता है इस पर मैंने उन्हें जो तर्क दिया उसे सुनकर वह चुप हो गए फिर आगे कुछ नहीं बोल पाए ये हम अपने को श्रेष्ठ और सही साबित करने के लिए नहीं बता रहें हैं बल्कि जो मुझे ठीक लगा वही मैंने उन सज्जन को कहा,कि आला हज़रत हों या फिर अलखनाथ ये सब किसी न किसी मजहब से जुड़े हैं और साम्प्रदायिकता के प्रतीक हैं जबकि झुमका न तो किसी धर्म का है और न ही मज़हब का,ये तो सबका है और किसी का भी हो सकता है, अमीर का,गरीब का,हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख, ईसाई किसी का भी और जो किसी का भी हो सकता हो उसे अपनाने में किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है?
जो सबको प्रिय है वही ईश्वर को भी प्रिय है। इसलिए झुमके से अच्छी पहचान तो बरेली के लिए हो ही नहीं सकती । किसी भी चीज़ के इतिहास बनने के पीछे कुदरत का कोई न कोई मकसद जरूर होता है तभी तो बरेली जैसे सांप्रदायिक और संवेदनशील शहर के लोग इतने अमनपसंद हैंझुमका ही बरेली की असल पहचान है इसमें कोई शक नहीं है और झुमके का वजूद तो कभी मिटा था और कभी मिटेगा ........तभी तो फिल्म मेरा साया में उसे साधना ने गिराया जरूर था लेकिन जा नच ले फिल्म में माधुरी ने उसे उठा भी तो लिया...........इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा कि झुमका ही है बरेली की शान उसकी पहचान...........
पूजा सिंह आदर्श

Thursday 20 May 2010

वो पापा कहलाने के लायक नहीं........

उसे
मेरा बाप मत कहो,वो हैवान है ,वो पापा कहलाने के लायक नहीं है ,उसने मुझे,अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा,अपनी इज्ज़त बचाने के लिए मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था इसलिए मैंने अपने बाप के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक दिया ,मेरी जगह कोई और लड़की होती तो वो भी यही करती,मुझे अपने किए का कोई अफ़सोस नहीं है,मैंने अपनी इज्ज़त बचाने के लिए अपने बाप के ऊपर तेज़ाब फ़ेंक दिया और अब मैं खुद ही थाने आ गई हूँ आप जो चाहे मुझे सजा दे दो। ये शब्द हैं मेरठ के लिसाड़ी गेट की रहने वाली सोलह साल की सलमा के जो अपने ही बाप की बदनीयती का शिकार होते-होते बच गई। पुलिस ने युवती के बयान दर्ज कराये हैं और उसके बाप को प्रथमद्रष्टया में दोषी मानते हुए हिरासत में लेने के लिए हॉस्पिटल में पुलिस तैनात की है क्योकि सलमा का बाप जावेद तेज़ाब गिरने के कारण चालीस फीसदी तक झुलस गया है। खैर यहाँ मेरा मकसद कोई न्यूज़ देना नहीं हैं उसके लिए तो अख़बार ही काफी है.........इस घटना के जरिये हम ये बताना चाहते हैं कि हम लड़कियों के जीवन में दो ही रिश्ते सबसे ज्यादा विश्वासपूर्ण होतें हैं एक पिता और दूसरा भाई,इनके आलावा हम किसी पर भी जल्दी भरोसा नहीं करते और ना ही कर सकतें हैं लेकिन यदि रक्षक ही भक्षक बन जाए तो क्या विकल्प बचता है हमारे सामने यही न कि हम भी अपनी पूरी शक्ति के साथ अपनी इज्ज़त की रक्षा करें जैसा की सलमा ने किया। ऐसा ये पहला मामला नहीं है कि किसी बाप ने अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा हो,ऐसा बुहत बार हो चुका है। बाप के आलावा कई लड़कियन अपने सगे भाइयों तक की हवस का शिकार बन चुकी हैं।इसके आलावा बलात्कार के ऐसे कई मामले जो इज्ज़त की खातिर खुल ही नहीं पातें हैं,मामा,चाचा,ममेरे,चचेरे,फुफेरे भाई अपनी बहन-बेटियों की इज्ज़त ख़राब कर देतें हैं और लड़की के घर वाले अपनी झूठी इज्ज़त बचाने के लिए उन लोगों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाते,यूनिसेफ की एक रिपोर्ट ये खुलासा करती है कि लड़कियां बाहर वालों की अपेक्षा घरवालों की हैवानियत का शिकार ज्यादा बनती हैं क्योंकि भेडिये तो उनके घर में ही छुपे बैठे हैं।
सवाल ये उठता है कि अपनों से ही अपनों की रक्षा कैसे की जाए? इंसान जानवर हो चुका है कि उसे लड़कियों और महिलाओं में सिर्फ हवस की पिपासा को शांत करने का साधन ही नज़र आता है। बहन-बेटी चाहे किसी की भी क्यों न हो इज्ज़त सबके लिए बराबर होती है और उतनी ही मायने रखती है। ऐसा नहीं होता कि आप सिर्फ अपनी बहन-बेटी को तो बचा कर रखें और दूसरों की बहन-बेटी को गन्दी निगाहों से ताकें।ऐसे मामलों में कोई कुछ नहीं कर सकता ना कोई रिश्तेदार न पुलिस अगर कुछ कर सकतीं हैं तो वो हैं खुद लड़कियां,जैसा की सलमा ने किया उसने अपने हैवान बाप के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि हिम्मत से उसका मुकाबला किया। दाद देनी पड़ेगी लड़की की हिम्मत की अगर सभी लड़कियों में अपनी आत्मरक्षा करने की हिम्मत आ जाए तो कोई दरिंदा ऐसे गन्दी हरकत अपनी तो क्या दूसरे की बेटी के साथ भी करने की हिमाकत नहीं करेगा। और ऐसा भी नहीं है की उसके पुलिस या कानून उसकी मदद नहीं करेंगे,जरूर करेंगे जैसी सलमा की की है। जिसने भी इस घिनौनी हरकत के बारे में सुना उसने ही बोला कि ऐसे बाप को तो बीच चौराहे पर फाँसी दे देनी चाहिए,जो अपनी ही बेटी की इज्ज़त नहीं कर सकता वो दूसरों की बेटी की क्या करेगा?ऐसा इन्सान समाज में रहने लायक नहीं है और न ही उसे खुले भेडिये की तरह शिकार करने के लिए छोड़ देना चाहिए। रिश्तों को कलंकित वाले के लिए इस सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है ।
सामाजिक व नैतिक मूल्यों का इतना पतन हो चुका है कि बस किसी पर भी आँख बंद करके तो बिल्कुल भी भरोसा नहीं किया जा सकता रही बात लड़कियों की तो उन्हें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से मजबूत बनना होगा तभी काम चलेगा वरना हवस के ये भूखे भेडिये लड़कियों का और भी जीना मुश्किल कर देंगे। इसके लिए तो पहल माता-पिता को ही करनी होगी कि वो अपनी बेटी का साथ दें, हरकदम पर उसका हौसला बढ़ाएं इसके आलावा स्कूल-कालेज में भी लड़कियों को उनके अधिकारों और आत्मरक्षा के बारें में पढाया और बताया जाना चाहिए। इसके साथ ही जो अहम् बात है वो ये कि हमारी बहन-बेटियों को भी अपने अंदर छिपी शक्ति का अहसास होना चाहिए कि वक़्त आने पर वो क्या कर सकतीं हैं,कोई दरिंदा उनकी तरफ नज़र उठा कर भी देखे तो उन्हें माँ काली या माँ दुर्गा बनने में समय न लगे।(सामाजिक दायित्वों के चलते नाम बदल दी गए हैं)
पूजा सिंह आदर्श

Friday 14 May 2010

ममता इतनी निर्मोही भी हो सकती है....

ये बिल्कुल सच साबित हो चुका है कि हम कलयुग में जी रहें हैं,घोर कलयुग में जहाँ अब रिश्तों के कोई मायने नहीं रह गए हैं,हर रिश्ता दम तोड़ता हुआ नज़र रहा हैअभी कुछ ही दिन पहले हम मदर्स डे मना कर अपनी माँ को ये अहसास दिला चुके हैं कि हम उसे कितना प्यार करतें हैं,लेकिन इसके ठीक तीन दिन बाद मेरठ शहर में कुछ ऐसा हो जाता है जो हम सब को सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या इस दुनिया से इंसानियत नाम की चीज़ बिल्कुल ही मिट गई है,क्या हमारे अंदर की सारी भावनाएं मर चुकी हैं। मेरठ के रेलवे स्टेशन की पटरियों पर एक नवजात बच्ची के रोने की आवाज़ सुनकर लोग उस तरफ दौड़तें हैं तो जो मंजर देखने को मिलता है उससे किसी की भी चीख निकल जाए,बच्ची के गले में उसकी नाल लिपटी हुई थी,खून से लथपथ बच्ची रेल की पटरियों के बीच में पड़ी हुई थी और रो-रो कर उसने अपने को हकलान कर लिया था वो बताना चाह रही थी कि उसकी इस दशा की जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि उसकी अपनी माँ है जिसने उसे जन्म देते ही ट्रेन के शौचालय में से नीचे फेक दिया और पलट कर उसकी तरफ एक बार भी नहीं देखा कि उसके उपर कितनी रेलगाड़ियाँ गुज़र जाएँगी तो क्या वो नन्ही सी जान जिन्दा बच पायेगी और हुआ भी ऐसा ही बच्ची के ऊपर से कई ट्रेने निकल गई पर उसे एक खरोंच तक नहीं आयी, वो कहते है न कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। वही हुआ उस नन्ही परी के साथ,परी......यही नाम दिया है उसको बचाने वालों ने।
ये खबर शहर में आग की तरह फैली जिसने भी सुना,उसने परी की माँ को कोसा कि क्या कोई माँ ऐसा कर सकती है? क्या ममता इतनी भी निर्मोही हो सकती है अरे जानवर को भी पता होता है कि ममता क्या होती है अगर उसके बच्चे की तरफ कोई आँख उठाकर देखे तो जानवर भी अपनी जान देने को तैयार हो जाता है पर अपने बच्चे की हर हाल में रक्षा करता है। पर इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अब हम जानवर से भी गए -गुज़रे हो गए हैं। ऐसा नहीं है कि परी को माँ की गोद नहीं मिली,उसकी अपनी माँ ने उसे भले ही मरने के लिए छोड़ दिया हो लेकिन शहर की एक स्वयं -सेवी संस्था ने परी को अपनाया है अभी तक वही लोग उसकी देख भाल भी कर रहें हैं।परी के लिए शहर के लोगों का बेशुमार प्यार उमड़ रहा है,कोई उसके लिए सुंदर-सुंदर कपडे लाया तो कोई खिलौने लाया,कोई बेबी सोप लाया तो कोई पाउडर। इतना प्यार दे रहें हैं सभी कि उसे अपनी माँ की कमी कभी महसूस न हो। परी को गोद लेने वालों का भी ताँता लगा हुआ है अब तक कई आवेदन आ चुकें है लेकिन संस्था सोच-समझ कर ही किसी जिम्मेदार दंपत्ति को ही परी को सौंपेगी। मासूम परी जिसे दुनिया में आये बस कुछ ही दिन हुए है उसने इनता कष्ट उठा लिया कि उसके दुःख के आगे हर दुःख छोटा है। उसने मन ही मन अपनी माँ से पूछा तो होगा कि माँ तूने मुझे क्यों छोड़ दिया,ऐसी क्या मजबूरी थी तेरे आगे जो तुझे मेरा मोह भी नहीं रोक पाया अगर तू मुझे अपना नहीं सकती थी तो मुझे दुनिया में लाने की क्या जरुरत थी?ये सवाल जिंदगी भर उसकी माँ भी को कचोटता रहेगा, चैन तो उसे भी नहीं मिलेगा।
इस पूरे मामले में दाद देनी होगी मीडिया की,कि उसने इसे महज़ चटपटी खबर बनाकर नहीं छापा बल्कि अपनी पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए परी को सही हाथों तक पहुँचाया है इससे देखकर लगता तो है कि पत्रकारिता अभी जिन्दा है,उसमे सांस बाकी है। इसलिए मुझे गर्व है कि मैं भी इस चौथे स्तम्भ का हिस्सा हूँ।

Sunday 9 May 2010

मदर्स डे पर विशेष...तुझे सब है पता मेरी माँ ......

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई।
अगर किसी के हिस्से में माँ आए तो उससे ज्यादा खुशकिस्मत कौन हो सकता है,इस शेर के जरिये शायर यही बात समझाने की कोशिश की हैएक सुखद एहसास जैसी माँ,शीतल जल जैसी माँ,धूप में ठंडी छाँव जैसी माँ और क्या लिखूं माँ के बारें में मेरे पास शब्द नहीं है और न ही मेरी लेखनी में इतनी ताक़त है कि मैं उसके बारें में कुछ लिख सकूँ। माँ के बारें में कई बार और बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन फिर भी मैंने उसके लिए कुछ लिखने का प्रयास किया है मुझे विश्वास है कि अगर मुझसे कोई गलती हो जाए तो ईश्वर मुझे माफ़ करेंगे।
माँ शब्द में ऐसा क्या है?जिसे सुनते ही कलेजे में एक अजीब सा अहसास होने लगता है,सब कुछ एक सुखद एहसास से भर जाता है,जिसको न तो जुबान से और न ही लेखनी से बयां किया जा सकता है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इन्सान होगा जिसे अगर उसकी माँ के बारें में बोलने के लिए कहा जाए और उसका गला न रुंधे और आँख न भर आए। माँ वो खूबसूरत अहसास है जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। माँ ,जिसे ईश्वर ने अपने समतुल्य बनाया है,हर घर में वो खुद नहीं हो सकता इसलिए माँ को बनाया उसने और अपना दर्जा दिया। माँ को भी वही भावनाएं दी जो खुद ईश्वर में समाहित होतीं हैं,तभी तो कहा जाता है कि माँ के पैरों के नीचे जन्नत होती हैं और ये शाश्वत सत्य है जिस किसी ने भी माँ की पूजा की या उसकी सेवा की समझो उसने ईश्वर को पा लिया और अपनी जिंदगी में सफलता के शिखर को छुआ।
अपने बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं करती माँ,कोख में आने से लेकर उसके जन्म तक,जन्म से लेकर बड़े होने तक सिर्फ त्याग और बलिदान ही करती है माँ। अपना सुख-चैन,अपनी नींद,अपनी खुशियाँ,अपनी इच्छाएं सब कुछ अपने बच्चो पर वार देती है अपने बच्चे की तकलीफ को बिना बताये ही समझ जाती है माँ। वह अपने बच्चे को डांटे-फटकारे या मारे पर उसके प्राण तो उसी में बसे होतें हैं। माँ की प्रशंसा में कुछ कहते ही नहीं बनता है,माँ तो बस माँ होती है ,एक पूरी दुनिया अपने अंदर समेटे हुए। क्या हम कभी ईश्वर की प्रशंसा करते हैं.....नहीं न ....तो फिर माँ की कैसे कर सकतें हैं,जिसमे साक्षात् ईश्वर का वास हो उसे पूजने के आलावा कोई विकल्प ही नहीं है। बच्चा जब पहला शब्द बोलता है तो उसके मुंह से माँ ही निकलता है,यह ईश्वर का ही संकेत है कि सबसे पहले माँ का नाम लिया जाए ,तभी तो पिता से भी पहले माँ का ही नाम आता है। माँ के विषय में बार-बार यह कहना कि माँ के जैसा कोई नहीं है ....इसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि माँ जैसा तो वास्तव में कोई नहीं है। औलाद को नौ महीने तक अपने खून से सींचना कोई मामूली बात नहीं है,यह वरदान सिर्फ औरत को मिला है। माँ बनकर ही उसका अस्तित्व पूरा होता है ,इसके लिए जरूरी नहीं कि बच्चे को जन्म ही दिया जाए किसी भी बच्चे की परवरिश करके अपनी ममता उसपर लुटाना भी माँ का ही रूप है।
माँ हमेशा दूसरों के बारें में ही सोचती है अपने लिए तो उसके पास कभी समय ही नहीं होता इस लिए मदर्स डे के रूप में माँ को समर्पित एक दिन बनाया गया जिससे हम उसके लिए कुछ ख़ास कर सकें,वैसे तो सारे ही दिन माँ के नाम हैं लेकिन फिर भी.... एक दिन उसे ढेर साड़ी खुशियाँ देने का। क्या सिर्फ एक ही दिन होना चाहिए माँ के लिए ये एक विचारणीय प्रश्न है दुनिया में बहुत से ऐसे लोग हैं जो माँ का सम्मान नहीं करते उसे दर-दर की ठोकर खाने को मजबूर कर देते हैं,उन लोगों को शायद पता नहीं कि वो कितना बड़ा गुनाह कर रहें हैं जिसकी सजा उन्हें इसी दुनिया में मिलेगी। मदर्स डे मनाना तभी सार्थक होगा जब माँ को इज्ज़त और प्यार दें क्योकि माँ जैसा तो कोई है ही नहीं एक माँ ही तो है जो हमसे निस्वार्थ प्यार करती है....मेरा अनुरोध है कि एक सवाल अपने आप से जरूर पूछें कि क्या आप अपनी माँ से प्यार करतें हैं?
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday 5 May 2010

प्यार कब तक देगा कुर्बानी....आखिर कब तक ?

जो कुछ भी आज हम लिखने जा रहें हैं वो मेरे अपने व्यक्तिगत विचार हैं जरूरी नहीं कि वे सबको सही लगें या सभी उससे सहमत हों,हर किसी का नजरिया अलग-अलग होता है चीजों को समझने का.........
ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजिए
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है
कहने को ये बहुत पुराना शेर है और सबने बहुत बार सुना होगा लेकिन आज भी अपनी सार्थकता को कायम रखे हुए है .........
क्योकि प्यार करने वालों के लिए ये आज भी आग का दरिया ही है,इसे बहुत ही कम लोग पार कर पातें हैं।आग का दरिया ये तब भी था जब हीर-राँझा ने और लैला -मजनू ने प्यार किया और अब भी है जब निरुपमा-प्रियभान्शु ने प्यार किया। प्यार करनें वालों के लिए हमने एक अलग सी राय बना रखी कि प्यार करना या किसी को चाहना बहुत गलत काम है और इससे बड़ा कोई पाप नहीं हैप्यार करने वालों को तो हमेशा ही इम्तिहान देना पड़ता है,जो खुश किस्मत होतें हैं वो पास हो जातें हैं और जो बदनसीब होतें हैं उनका प्यार अधूरा ही रह जाता है......ऐसा ही कुछ हुआ दिल्ली में काम करने वाली युवा पत्रकार निरुपमा पाठक के साथ जिसे दूसरी बिरादरी के लड़के के साथ प्यार करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी अपनी जान देकर। उसके अपने ही लोगों ने उसे मौत के घाट उतार दिया.......क्या कसूर था उसका इतना ही ना कि उसने प्यार किया था,सच्चा प्यार और वो अपने प्यार को पाना चाहती थी हमेशा -हमेशा के लिए,उसने कभी ये सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके अपने ही उसके अरमानों का गला घोंट देंगे। दुनिया वालों को ये कतई बर्दाश्त नहीं हुआ कि वो अपनी मर्ज़ी से अपना जीवन साथी चुने और वो भी दूसरी बिरादरी का।
ऑनर किलिंग का ये कोई नया मामला नहीं है इससे पहले भी कई प्यार करने वाले इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। समाज के ठेकेदारों को ये हक पता नहीं किसने दिया कि वो जब चाहें प्यार करने वालों के साथ ये जुल्म कर सकें। कोलकाता का रिजवान मर्डर केस,नितीश कटारा हत्या कांड ये सब प्यार करने और ऑनर किलिंग का ही नतीजा है। इसके आलावा ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि वेस्टन यू.पी में सबसे ज्यादा ऑनर किलिंग के मामले प्रकाश में आते हैं,कहीं दो प्यार करने वालों को जिन्दा जला दिया जाता हैं तो कहीं कुल्हाड़ी से काट दिया जाता है......किस जुर्म में बस प्यार करने के ....खुदा के दिए हुए इस खूबसूरत एहसास को,इस नायब नेमत को लोग पता नहीं क्यों जुर्म मानते हैं। औरों की तो छोड़ो खुद माँ-बाप ही नहीं समझ पाते अपने बच्चों को वो समझतें हैं कि उन्होंने बच्चो को पैदा किया,पढाया लिखाया,पाल पोस कर बड़ा किया तो बच्चे उनकी जागीर हैं उनपर सिर्फ उनका ही हक है,उनकी भावनाओं से हमें क्या लेना-देना। अब तक उनके सारे फैसले वही करतें आये हैं तो फिर शादी जैसा अहम् फैसला वो खुद कैसे कर सकते हैं लेकिन समझना होगा अभिभावकों को कि प्यार कोई जानभूझ कर अपने माता-पिता को नीचा दिखाने के लिए नहीं करता,ये तो बस हो जाता है,इसपर किसी का जोर नहीं चलता।
हम ये नहीं कहते कि भावनाओं में बहकर कोई ऐसा काम करे जिससे माता-पिता का नाम ख़राब हो और उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़े अपने उपर संयम रख कर और मर्यादाओं में रह कर भी प्यार किया जा सकता है ।
समाज के ठेकेदारों और प्यार के दुश्मनों को भी कोई अधिकार नहीं है कि वो उनकी राह में कोई रोड़ा अटकाएं या फिर उनकी जान ले। गलती चाहे जिसकी भी हो,जैसी भी हो लेकिन जान लेने का हक किसी को नहीं है। यहाँ कोई जंगलराज नहीं चल रहा है जब चाहा किसी को भी मार दिया। अगर बच्चों से गलती हो भी गई है तो उसे प्यार से सुधारा भी जा सकता है ,इसके लिए पहल माँ-बाप को ही करनी होगी......प्यार,इश्क,मोहब्बत का वजूद इस दुनिया से ना मिटा है और ना मिटेगा,और जब तक ये कायनात रहेगी तब तक रहेगा,प्यार करने वालों के हौसले भी कम नहीं होंगे क्योंकि.......... प्यार करने वाले कभी डरते नहीं,जो डरतें हैं वो प्यार करते नहीं....इस जज़्बे को अपने दिल में रखने वालों को सलाम....
पूजा सिंह आदर्श