Thursday 22 April 2010

घुट-घुट के जीने को मजबूर हैं पुलिस वाले

ये चिराग़े ज़ीस्त हमदम जो न जल सके तो गुल हो
यूँ सिसक-सिसक के जीना कोई जिंदगी नहीं है ।
२०--१० को मेरठ के सरे अख़बारों में जो सुर्खी थी उसे देखकर दिमाग भन्ना गया,जितना दिमाग ख़राब हुआ उससे कहीं ज्यादा मन को पीड़ा हुई. पुलिस विभाग के एक वर्दीधारी सिपाही के शव को फाँसी के फंदे पर झूलता हुआ देख कर उपरोक्त पंक्तियाँ सहसा मेरे मन पटल पर उभर आई।
देश-प्रदेश की आन्तरिक सुरक्षा का भर उठाने वाला एक पुलिस कर्मी आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है यह कोई साधारण बात नहीं है। किसी इन्सान को ऐसा भयानक कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाली परिस्तिथियाँ दो-चार दिनों में उत्पन्न नहीं होती हैं बल्कि इसके पीछे घोर निराशा और दम घोटने वाला माहौल होता है। जब घुटन हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब इन्सान ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। मैंने ये बात यूँ ही नहीं लिख दी है बल्कि मुझे खुद को अनुभव है इस बात का क्योंकि मेरे पिता ने इस विभाग की ३६ साल तक सेवा की है और उन्हें कई बार ऐसे हालात में देखा है कि जहाँ ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि अपने दिल की सुने या दिमाग की। अपने ज़मीर को मारकर कोई खुद्दार आदमी चैन से कैसे रह सकता है ।
आइये पुलिस विभाग की अंदरूनी तस्वीर की समीक्षा करतें है,पुलिस विभाग को संचालित करने वाला पुलिस रेगुलेशन एक्ट लगभग १५० साल पहले हमारे अंग्रेजी शासकों ने बनाया था जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस कर्मी सप्ताह के सातों दिन व दिन के २४ घंटे का मुलाजिम होता है,उसे कभी भी ड्यूटी के वास्ते तलब किया जा सकता है । अंग्रेज़ बहादुर तो अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाकर चले गए लेकिन देश की आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी देश-प्रदेश के कर्णधारों को इस प्रकार के अव्यवहारिक नियमों पर विचार करने का समय नहीं मिला। दुनिया में श्रम क्रांति हुई श्रमिकों के लिए दिन में ८ घंटे काम करने का नियम बना लेकिन पुलिस विभाग इससे वंचित रहा
पुलिस विभाग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस विभाग की जिम्मेदारियों और संसाधनों में बहुत बड़ा गैप है। आज़ादी के बाद से पुलिस के दायित्वों में तो कई गुना इजाफा हुआ है लेकिन उसके अनुपात में पुलिस के संसाधन एक चौथाई भी नहीं बढे हैं। सबसे ख़राब स्तिथि थानों की है । एसएचओ या एसओ को छोड़कर अन्य सभी पदों के कर्मचारियों के स्थान रिक्त पड़े हैं जिन्हें भरने की कोई तर्कसंगत योजना सरकार के पास नहीं है। नगरों की ट्रेफिक -व्यवस्था,थानों का पहरा,ड्यूटी,पोस्टमार्टम करने तथा अभियुक्तों को कोर्ट में पेश करने के कार्यों में अगर होमगार्ड सहायक न हों तो पुलिस विभाग का काम चार दिन भी नहीं चल सकता।
देश की आबादी बढ़ रही है,बेरोज़गारी बढ़ रही है ,युवा वर्ग में असंतोष व्याप्त है जिसके फलस्वरूप अपराध बढ़ रहा है। चेन स्नेचिंग बढ़ी है,पर्स,मोबाइल,हैण्डबैग,लैपटॉप सरे आम लूटे जा रहे हैं और थानों में कोई एफआईआर दर्ज करने को भी तैयार नहीं है क्योंकि एक ओर तो अपराध का ग्राफ बढेगा और दूसरी ओर तफ्तीश के लिए स्टाफ कहाँ से आएगा? पिछले लगभग दो दशकों में पुलिस की कार्यशैली और उसकी संस्कृति में भयंकर बदलाव आया है,पुलिस के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में राजनैतिक दखल इस हद तक बढ़ा है कि जो पुलिस कर्मी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करतें हैं उन्हें मनचाही बढ़िया पोस्टिंग मिलती है और शेष तो धूल चाटते फिरतें हैं। एक और भयानक रोग जो घुन की तरह इस विभाग को खोखला कर रहा है वह है भ्रष्टाचार, पहले सुना जाता था कि कहीं-कहीं पुलिस वाले हफ्ता वसूल करते थे अब यह सुनने में आता है कि पुलिस वाले अपनी कुर्सी बचाने के लिए हफ्ता अदा कर रहें हैं। ईश्वर ही जानता है कि सच क्या है और इसका परिणाम क्या होगा ?पुलिस विभाग की सेवा शर्तें बहुत कठिन और कष्टदायक हैं ,थाना स्तर के कर्मचारियों की स्तिथि तो सबसे अधिक दयनीय है। मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। रहने को आवास नहीं है,समय पर अवकाश नहीं मिलता,प्रोन्नति के अवसर ना के बराबर हैं। खाना खाने,सोने व आराम करने का कोई समय नहीं है। जनता के मन से पुलिस का भय और सम्मान निकल चुका है। रास्ता जाम,थाने का घेराव,पथराव,पुलिस कर्मियों से हाथापाई अब रोज़ की बात हो गई है।
थाने की जीप में तेल अपनी जेब से डलवाना पड़ता है,दफ्तर में इस्तेमाल होने वाली स्टेशनरी भी खुद ही खरीदनी पड़ती है। अतः इस प्रकार के दम घोटू माहौल में यदि कोई संवेदनशील पुलिस कर्मी आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी घटना दुखद तो जरूर होती है लेकिन आश्चर्यजनक बिल्कुल नहीं।
पुलिस की सेवा-शर्तों में सुधार के लिए आयोग तो कई बने लेकिन उनकी सिफारिशें गृह-मंत्रालय के रिकॉर्ड रूम में धूल चाट रहीं हैं इससे पहले कि स्तिथि विस्फोटक हो जाए शासन-प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए वरना बदमाशों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले पुलिस कर्मी खुदखुशी करने पर मजबूर हो जायेंगे।
पूजा सिंह आदर्श

Sunday 18 April 2010

मासूम बना अपराधी....जिम्मेदार कौन ?

आज जो कुछ भी मैं लिख रही हूँ,वो पिछले कई दिनों से मेरे ज़हन में था बस विचारों को शब्द नहीं मिल पा रहे थे,लेकिन आज सोचा कि अपनी जिम्मेदारी से भागना ठीक बात नहीं है सो इस विषय को गंभीरता के साथ लिखने की ठान ली किन्तु इस विषय पर लिखने के पीछे जो व्यक्ति हैं उनका जिक्र करना जरूरी है और वो हैं मेरे वालिद साहब जिन्होंने ये लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया। जैसा की आप लोगों को शीर्षक देखकर ही लग रहा होगा कि कौन मासूम है और कौन अपराधी बन गया ?यहाँ मैं बता दूँ कि जो कुछ मैं लिखने जा रही हूँ वो बिलकुल सत्य घटना है ,इसमें लेश मात्र भी न तो झूठ है और न ही ये कोई कल्पना है। जिन लोगों के साथ ये सब कुछ हुआ है उन्हें हम व्यक्तिगत रूप से जानते हैं। हाँ व्यक्तियों और जगह का नाम जरूर बदल दिया है ताकि उनकी भावनाओं को कोई ठेस ना पहुंचे। इस घटना को समझने के लिए पूरी जानकारी होना जरूरी है कि ये सब क्यों और कैसे हुआ?
मुजफ्फरनगर यू.पी के एक गाँव रिसानी के ठाकुर नरेन्द्र सिंह अपनी पत्नी -बच्चों सहित गाँव में रहते थे,बच्चों की पढाई को देखते हुए उन्होंने शहर में घर खरीद लिया और सब वहीँ रहने लगे। सभी बच्चे शहर में पढ़े और शादी भी हो गई। ठा.साहब के सबसे छोटे पुत्र राजेश ने यूँ तो उच्च शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन योग्यता के नाम पर उसके पास कुछ नहीं था अतः उसने गलत राह पकड़ ली। बेटे को बिगड़ता देख ठा.साहब ने उसका विवाह मीना नाम की युवती से ये सोच कर दिया कि शायद राजेश सुधर जाए पर वो शराब का आदि हो चुका था अब ये बात मीना को अखरने लगी थी,इसी बीच मीना गर्भवती हो जाती है अब उसके भीतर एक अंतर्द्वंद चल रहा था कि वो इस बच्चे को जन्म दे या नहीं लेकिन राजेश की माँ के समझाने पर वो बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार हो जाती है। पुत्र मोनू के जन्म के बाद अपने पति के आचरण से दुखी होकर मीना अपने ६ माह के दुधमुहें बच्चे को छोड़ कर अपने मायके चली जाती है कभी ना वापस आने के इरादे से। उधर दादी ने नन्हे मोनू को सब कुछ दिया किन्तु मोनू अपनी वास्तविक माँ के स्नेह से वंचित रहा,वह धीरे-२ बड़ा होने लगा और दादी के आलावा किसी और महिला को नहीं पहचानता था। अपने बेटे का घर बर्बाद होते देख और मोनू के बारे में सोचकर ठा.साहब ने बिरादरी वालों के साथ मिलकर मीना के परिवार पर दवाब बनाया और उसे घर ले आये उस समय मोनू कि उम्र ६-७ साल की रही होगी। मीना वापस तो आ गई लेकिन अपने बदले हुए रूप के साथ,अब वो किसी की भी परवाह नहीं करती थी यहाँ तक कि मोनू की भी नहीं,उसने अपने पति राजेश को भी अपने वश में कर लिया था क्योंकि राजेश अब सुधर चुका था उसने ज्यादा शराब पीने की वजह से मौत को करीब से देख लिया था इसलिए शराब से तौबा कर ली थी,अब वो भी अपनी पत्नी की बात मानने लगा था और वापस अपने गाँव जाकर रहने लगा,इसी बीच मीना ने एक बेटी को जन्म दिया जो मोनू से लगभग ९ साल छोटी है। ठा.साहब ने अपनी जमीन का बंटवारा कर दिया था। राजेश के हिस्से में भी ५० बीघे जमीन आई थी सो उसकी जिन्दगी भी आराम से कटने लगी। इधर मोनू भी तेजी से बड़ा हो रहा था और ९वी कक्षा में आ गया था,राजेश ने उसका दाखिला गाँव के निकट ही एक अंग्रेजी स्कूल में करा दिया लेकिन मोनू गलत सोहबत में पड़ चुका था ,पढाई -लिखाई में उसकी कोई रूचि नहीं थी इसलिए वो ना तो स्कूल जाता था ना पढाई करता था। सोने पे सुहागा ये हुआ कि राजेश ने भी अपनी झूठी शान दिखाने और मोनू की जिद पूरी करने के लिए उसे मोटरसाईकिल,महंगा मोबाइल,सोने की चेन जैसी विलासता की वस्तुएं दिला दी। अब वो मोटरबाइक से स्कूल पढने नहीं बल्कि शहर घूमने जाता था अपने दोस्तों के साथ,ये बात राजेश को मोनू के स्कूल के प्रधानाचार्य ने ने बताई तो वह हैरान रह गया,जैसे -तैसे करके मोनू ने दसवीं पास की। अब तो उसकी इच्छाएं आसमान छूने लगीं और उसके शौक भी बढते जा रहे थे। उधर गाँव वाले और खानदानी लोग मोनू को उसके माँ-बाप के खिलाफ लगातार भड़का रहे थे कि तू पढ़ कर क्या करेगा तेरे पास तो ५० बीघा जमीन है उसके मन में ये बात घर कर गई वैसे भी किशोरावस्था का मन कच्चे मिटटी के बर्तन के जैसा होता है उसे जो चाहे आकार दे दो यही तो हुआ मोनू के साथ। अब आये दिन उसकी अपनी माँ के साथ झड़प होने लगी,मोनू और उसकी मान के बीच बचपन में पैदा हुई खाई और चौड़ी होती चली गई। जब मोनू का हाथ अपनी माँ पर उठ गया तो मीना ने तय कर लिया कि उस घर में या तो मोनू रहेगा या फिर वो .......ऐसी भी कोई सगी माँ होती है क्या, जो अपनी औलाद के लिए ऐसा फरमान जारी करे ....खैर अपवाद तो हर जगह मौजूद हैं। राजेश उन दिनों बीमार चल रहा था इसलिए उसे बेटे से ज्यादा पत्नी की जरूरत थी लिहाज़ा बेटे को मार-पीट कर घर से निकाल दिया। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त,अब यहाँ से बदलती है मोनू की तकदीर......
मोनू तो खुद भी गाँव में रहना नहीं चाहता था क्योंकि उसे शहर की हवा लग चुकी थी। वह भाग कर शहर आ गया अपनी दादी के पास,दादी ने भी अपने लाडले पोते को गले से लगाया और आसरा भी दिया लेकिन उसे क्या पता था कि जिसे वो सहारा दे रही है वही एक दिन उसके गले की फाँस बन जाएगा.अब दादी का घर ही मोनू की अय्याशियों का नया अड्डा बन गया था,दादी के घर में ही शराब और सिगरेट का जमकर प्रयोग होता था अगर दादी मना करती तो उसकी भी शामत आ जाती। दादी भी अंदर ही अंदर परेशान थी, उसने खूब कोशिश की,कि मोनू के माता-पिता उसे वापस अपने साथ ले जाएँ लेकिन उन्होंने उसकी एक ना सुनी यहाँ तक कि सारे रिश्तेदारों ने भी बहुत समझाया लेकिन मोनू के माँ-बाप टस से मस नहीं हुए,नाजाने किस मिटटी के बने हुए थे। मोनू की अय्याशियों के कारण उसके खर्चे बढते ही जा रहे थे और दादी की जमा-पूंजी को भी वो ख़तम कर चुका था और कोई काम काज वो कर नहीं सकता था क्योंकि शैक्षिक योग्यता ना के बराबर थी लिहाज़ा उसके पास अपराध करने के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। शहर के कुछ जाने माने अपराधियों से उसकी जान-पहचान थी,मोनू के पास मोटरबाइक तो पहले से ही थी अतः वह लुटेरों के गिरोह में शामिल हो गया और लूट की लगातार कई वारदातें की.लेकिन पुलिस की नज़रों से ज्यादा दिन तक नहीं बच सका और उनके हत्थे चढ़ गया उस पर लूट के ७ मुकदमें अलग-२ थानों में दर्ज किए गए। ठाकुर साहब के साथ -२ पूरे परिवार की काफी बदनामी हुई,कोई उसकी जमानत तक कराने को तैयार नहीं हुआ। उसकी दादी ७५ साल की उम्र में अपने पोते की जमानत कराने के लिए दर-दर भटकी आखिर में राजेश और उसकी पत्नी को अहसास हुआ कि शायद वो अपने बेटे के साथ नाइंसाफी कर रहे हैं अगर बच्चा गलत राह पर चला गया है तो सबसे पहले माँ-बाप ही उसकी ऊँगली पकड़कर वापस लाने का प्रयास करतें हैं। मोनू के माता-पिता को भी ये अहसास तो हुआ मगर देर से .....अंग्रेजी की एक कहावत के अनुसार एक बुद्धिमान व्यक्ति जिस भूल का सुधार शुरू में ही कर लेता है,उसी कार्य को मूर्ख अंत में जाकर करता है ,तब तक काफी देर हो चुकी होती है। खैर फिर भी ....देर आयद,दुरुस्त आयद। अब सवाल ये है कि भूल किससे हुई और कहाँ हुई?दोष भी किसे दें?मोनू को,उसके माँ-बाप को या फिर उसकी किस्मत को पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि माँ-बाप ने अपनी जिद में आकर बेटे का जीवन तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।फिलहाल मोनू जमानत पर रिहा हो चुका है,किस्मत ने उसे और उसके माँ-बाप को एक और मौका दिया है अपनी भूल सुधारने का ।
इस लेख में लिखे गए घटना क्रम के बारें में मैं अपने प्रबुद्ध पाठकों कि राय जानना चाहती हूँ कि चूक कहाँ हुई और एक साधारण बच्चे को अपराधी बनाने का जिम्मेदार कौन है ?

Monday 12 April 2010

फिर मिलेंगे ..........

अभी एक या दो दिन पहले मैंने किसी चैनल पर एक फिल्म देखी जिसका शीर्षक था........फिर मिलेंगे.......इससे पहले मैंने ये फिल्म कभी नहीं देखी थी,कभी कुछ आधा-अधूरा सा सुना था इसके बारें में लेकिन जब मैंने इसे देखा तो पहले तो मुझे यकीन नहीं हुआ कि अभी भी सार्थक सिनेमा जीवित है और इस फिल्म ने मेरे दिल-ओ -दिमाग पर ऐसी छाप छोड़ी और मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया .......अब आप सोचेंगे कि क्या सोचने पर मजबूर किया ?दरअसल ये फिल्म आधारित है एड्स विषय पर ...इस फिल्म कि मुख्य पात्र है शिल्पा शेट्टी जो एक बड़ी विज्ञापन कम्पनी में काम करती है और एक दिन अचानक उसे पता चलता है कि उसे एड्स हो गया है। वो भावुक होकर ये बात अपने बॉस को बता देती है और फिर वही होता है जिसका अनुमान कोई भी आसानी से लगा सकता है,एक एड्स के मरीज़ को अपने ऑफिस में रखना ये बात उसके बॉस को नागवार गुजरती है और वो उस पर ये इल्ज़ाम लगाकर कि वह अपने काम में लापरवाही करती है,उसे नौकरी से निकाल देता है। फिल्म में शिल्पा ने तमन्ना नाम की युवती का किरदार निभाया है जो एड्स से पीड़ित है,और कितनी ख़ूबसूरती से निभाया है इस किरदार को उन्होंने, एचआईवी+ होने का दर्द उनके चहरे पर साफ दिखाई देता है बहरहाल अपने देश में क्या पूरी दुनिया में ना जाने कितनी तमन्ना हैं जिन्हें एचआईवी + होने का ये खामियाज़ा भुगतना पड़ता है और इस तरह के व्यवहार से रु- ब-रु होना पड़ता है। एड्स मरीजों की तादात जिस रफ़्तार से बढ़ रही है वो खतरे की घंटी है। ये तो हम सब को पता है कि एड्स एक लाइलाज बीमारी है और ये कैसे हो सकती है ये भी बताने कि जरुरत नहीं है,हम सब जानते हैं,सब समझते हैं फिर भी एड्स कि बीमारी कम होने का नाम ही नहीं ले रही बल्कि इसके मरीजों की संख्या बढती ही जा रही है। बात करतें हैं एड्स रोगियों के साथ होने वाले भेद भाव की....उनके साथ हम इतने कठोर कैसे हो सकते हैं,अगर कोई एचआईवी + है तो इसका मतलब ये नहीं कि उसकी जिन्दगी ख़त्म हो गई,उसे पूरा हक है अपनी जिन्दगी को अपने ढंग से जीने का,उसे भी वही सब अधिकार हैं जो किसी भी सामान्य इन्सान को होते हैं ।सपने देखने का,अपनी इच्छाओं को पूरा करने का और फिर चाहे पढाई का अधिकार हो या जॉब करने का,उससे ये अधिकार कोई नहीं छीन सकता अगर कोई ऐसा करता है तो ये मानवता के विरुद्ध है और महा पाप है। फिल्म में यही दिखाया गया है कि कैसे तमन्ना अपने हक की लड़ाई को लडती है और तमाम मुश्किलों को पार करने के बाद आखिर में जीत भी उसी की होती है। अपने हक और मान-सम्मान के लिए लड़ना कोई गलत काम नहीं है,ये सबका अधिकार है। एड्स के मरीज़ हमारी दया के नहीं बल्कि सहयोग के पात्र हैं,वो भी हमारे समाज का हिस्सा हैं इस बीमारी कि वजह से हम उन्हें अपने से अलग नहीं कर सकते,उन्हें भी जीने और खुश होने का हक है। छोटी-छोटी खुशियों को अपने दामन भर लेने का हक है। आइये....आगे बढ़कर इन लोगों का हाथ थामे और सामान्य जीवन जीने में इनका सहयोग करें.....जिन लोगों को मेरी बात समझ ना आए या अटपटी लगे वो यह फिल्म जरूर देखें और सार्थक सिनेमा को सराहें....इसी कारण मैंने इस लेख का शीर्षक नहीं बदला......फिर मिलेंगे ........



Friday 9 April 2010

हमाम में सभी नंगे ...........

कहा जाता है कि पत्रकार समाज का आईना होता अब ये बात कितनी सार्थक है ये बताने की तो अब जरुरत ही नहीं है तो अब पत्रकारिता आईना रह गई है और ही पत्रकार कलम के सिपाही.समाज के इस आईने में अब क्या दिखाई दे रहा है इसे बताने कि आवशयकता नहीं है .चाहे प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो लिखते हुए भी शर्म आती है कि ये दलालों की मंडी बन के रह गई है,खरीद-फरोख्त का धंधा पूरे जोर-शोर से चल रहा है.हालांकि मैं भी एक पत्रकार हूँ मुझे अपनी कम्युनिटी के बारें में न तो ऐसा कहना चाहिए और न ही लिखना चाहिए लेकिन मैं मजबूर हूँ क्योंकि मैंने अपनी कलम से समझौता नहीं बल्कि वादा किया है कि इससे निकलने वाले शब्दों का कभी भी सौदा नहीं करना है ,मंडी में इसकी बोली नहीं लगानी है।
अब आप किसी भी समय कोई भी चैनल खोल के देख लें सुबह से शाम तक एक ही खबर चला-चला के जब तक उसका दम ना निकाल दें चैनल वालों को चैन नहीं आता,सब टीआरपी का खेल है भाई ..........अगर ऐसा ना करें तो दाल-रोटी के भी लाले पड़ जाएँ .यदि कोई महत्वपूर्ण खबर किसी खास व्यक्ति के बारें में है तो उसे दिखाने से पहले सौदेबाज़ी जरूरी है,सौदा पट गया तो वारे-न्यारे नहीं तो बेटा भुगतो नतीजा फिर तो चैनल वाले उसका ऐसा बैंड बजायेंगे कि उसे भी छठी का दूध याद ना आ जाए तो कहना लेकिन ये बात प्रत्येक चैनल पर लागू नहीं होती.इसके बाद बचता है अख़बार.....अब यहाँ भी सबके उस्ताद बैठे हैं किसी भी ख़बर को इतनी आसानी से छापने वाले तो ये भी नहीं है अगर इन्हें चैनल वालों का भी बाप कहा जाए तो इसमे कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.ख़बर छुपाने के लिए अगर बड़ा सौदा किया जाए तो इन्हें इससे भी गुरेज़ नहीं है।
इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि क्या हमारे समाज में सिर्फ नकारात्मक घटनाएँ ही घटित होती हैं या सब कुछ बस गलत ही हो रहा है ,अख़बार के जयादातर पन्ने क्राईम की ख़बर से ही भरे होते है या फिर ऐसी ख़बरें होती हैं जिनसे अख़बार को ही फ़ायदा हो,हमारे चारों तरफ कहीं कुछ अच्छा भी तो हो रहा होगा क्या उसे सबके सामने लाना इनका फ़र्ज़ नहीं है,अगर कोई पोजिटिव ख़बर लगाई भी तो मजबूरी में। पर क्या किया जाए वो कहावत है न कि हमाम में तो सभी नंगे है फिर किसी एक को ही दोष क्यों दिया जाए।
मुझे डर है कि राजनीति की तरह ही कहीं पत्रकारिता भी काजल की कोठरी न बन जाए कि लोग इसमें जाने से या करने से ही कतराने लगें ........










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Wednesday 7 April 2010

हंगामा है क्यों बरपा ...जो सानिया-शुएब हैं साथ

आजकल सुर्ख़ियों में छाए हुए हैं सानिया मिर्ज़ा और शुएब मलिक ............अख़बार और टीवी चैनल दोनों पर ही ये हॉट न्यूज़ है कि दोनों जल्द ही शादी के बंधन में बंधने वाले हैं ......तो इसमें ऐसा क्या हो गया कि इतना हंगामा खड़ा हो गया?लेकिन ये तो होना ही था क्योकि शुएब पाकिस्तानी जो हैं अगर उनकी जगह कोई और होता या सानिया किसी और से शादी करने का फैसला करतीं तो शायद किसी को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था किन्तु कोई भारतीय लड़की किसी पाकिस्तानी की दुल्हन बनकर जाए ये कैसे हो सकता है? शादी होने से पहले ही ये दोनों इतने विवादों में घिर गए की शुएब की पहली पत्नी आएशा अचानक से प्रकट हो गयीं जिनसे शुएब ने फ़ोन पर निकाह किया था, अगर किया था तो ये मोहतरमा अब तक कहाँ थी, एकदम उन्हें एहसास हो गया की शुएब उनके पति हैं ये तो वही हाल हो गया जो अभिषेक बच्चन की शादी से ठीक पहले हुआ था कि जहान्वी नाम कि एक युवती ने भी उनके ऊपर ये इल्जाम लगा दिया था कि अभिषेक ने उससे शादी कि है एक बारगी तो बच्चन परिवार के होश उड़ गए थे लेकिन वो देश का एक प्रतिष्ठित परिवार है जिस पर कोई ऐरा-गैरा जल्दी हाथ नहीं डाल सकता.बच्चन परिवार ने तो इस मुसीबत से जल्दी ही पिंड छुडा लिया लेकिन शुएब बेचारे बुरे फंसे आखिर उन्हें अपनी कथित पत्नी को तलाक देना ही पड़ा.शुएब को तो छोड़ो सानिया को भी अपने ही मुल्क में कम मुसीबतों का सामना नहीं करना पड़ा कहीं उनके विरोध में नारे लगाये गए तो कहीं उनका पुतला फूँका गया.देश और समाज के ठेकेदार हाथ धोकर नहीं बल्कि नहा धोकर उनके पीछे पड़ गए.क्या ये लोग नहीं जानते कि शादी एक अत्यंत निजी फैसला है इसमें किसी कि भी दखलंदाजी नहीं चल सकती.कोई भी बालिग जब चाहे, जिससे चाहे शादी कर सकता है फिर चाहे वो पाकिस्तानी हो,अफगानी हो,ब्रितानी हो या फिर हिन्दुस्तानी.हंगामा क्यों बरपा क्योंकि सानिया खेल जगत कि चर्चित हस्ती हैं.रोजाना बहुत से लोग अपने मुल्क से बाहर शादी करतें हैं दूसरे देश कि नागरिकता लेते हैं किसी को कोई फर्क पड़ता है क्या?फिर सानिया-शुएब की शादी से क्यों?इसी बीच एक उलेमा साहब का बयान आता है कि सानिया को १७ करोड़ मुस्लिम लड़कों में से कोई नहीं मिला शादी करने को.वैसे उलेमा साहब कि बात में दम तो है जब बच्चे बड़े होतें है तो हम उन्हें सही गलत का निर्णय लेना सिखाते हैं कुछ काम ऐसे होतें हैं जो हमे खुद ही सोच समझ कर करने चाहियें कि हम ये कर तो रहे हैं लेकिन इसका नतीजा क्या होगा ?अगर आप कोई सेलेब्रिटी हैं ,या अपने देश का नेतृत्व करतें हैं तो आपकी जिम्मेदारी और भी बढ जाती है कि आप सिर्फ अपने बारें में न सोच कर देश की शांति और अमन के बारें में भी सोचें .........बहरहाल ये सानिया -शुएब का निजी फैसला है हम और आप सिर्फ अपने विचार प्रकट करने के आलावा कुछ नहीं कर सकते और जो लोग बेवजह हंगामा खड़ा कर रहें हैं उन्हें भी समझना होगा कि हंगामा करने से देश की शांति ही भंग होगी ,जिसे जो करना है वो तो करेगा ही ।
पूजा सिंह

Thursday 1 April 2010

ये किसकी नज़र लगी ........

क्या होता जा रहा है हम लोगों को कि अमन और चैन की जिंदगी रास ही नहीं आती हमे.अभी पिछले दिनों बरेली जैसे शांतिप्रिय शहर में जो दंगे हुए,आगजनी हुई, करफू लगाया गया वह बिल्कुल अप्रत्याशित घटना है .बरेली का इतिहास पलट कर देख लीजिये जो कभी भी साम्प्रदायिक दंगो की हवा भी उसे लगी हो पर अब ऐसा भी हो गया.बरेली भी अलीगढ,मेरठ और मुरादाबाद की तरह ही मुस्लिम बाहुल्य शहर है लेकिन आज तक भी सांप्रदायिक आग कि लपटें उसे छू भी नहीं पायीं फिर ना जाने किसकी नज़र लग गई कि बरेली का माहौल ख़राब हो गया.आला हज़रत और पांच नाथों के शहर को भी नहीं बक्शा अमन के इन दुश्मनों ने.जिस शहर के बाशिंदे आपस में इतने घुल-मिल कर और प्यार से रहते हों वहां कि फिजां ख़राब हो जाए ये बात कुछ हजम नहीं होती.किसी कि सुनी सुनाई बात पर यकीन नहीं किया जा सकता लेकिन जब आपने स्वयं अनुभव किया हो तो ........मैंने अपनी जिंदगी के सात अहम् साल गुजारें हैं उस शहर में लेकिन कभी भी ये महसूस नहीं किया कि इस शहर में हम महफूज़ नहीं हैं.आज भी इस शहर कि जमी पर पैर रखते ही अहसास हो जाता है अपनेपन का फिर ये कैसे मान लिया जाए कि बरेली एक सांप्रदायिक शहर है.जब कभी भी इस शहर पर कोई मुसीबत आई है तो यहाँ के लोगों ने मिल- जुल कर और डट कर उसका सामना किया है और मुझे पूरी उम्मीद है कि आगे भी वो ऐसा ही करेंगे ताकि कोई बरेली जैसे अमन पसंद शहर कि फिजां ख़राब ना कर सके.इंशाअल्लाह

पूजा सिंह