Friday 16 July 2010

क्या हमें जीने का कोई हक नहीं......क्या हम इन्सान नहीं ???


अपनों से बिछड़ने का दर्द क्या होता है,उसकी पीड़ा क्या होती है ये बताने की शायद जरुरत नहीं हैकिसी अपने से अलग होने का जरा सा ख्याल भी हमें झकझोर के रख देता है। आदमी अगर दुनिया से चला जाए,मौत उसे हमसे छीन ले तो हम उसे विधि का विधान मानकर स्वीकार कर लेते हैं और यदि हम जानबूझ कर किसी अपने को खुद से अलग कर दें,उससे सारे रिश्ते खत्म कर लें,उसे किस्मत के सहारे छोड़ दें। हमें उसे अपना कहते हुए भी शर्मिंदगी महसूस हो,तो क्या हम वाकई उसके अपने हैं और वास्तव में उससे सच्चा प्यार करतें हैं????
लेकिन ये सच है ऐसा भी होता है,मैंने ऐसे लोगो को बहुत नजदीक से देखा है और उनका दर्द भी बहुत शिद्दत से महसूस किया है.......हम बात कर रहें हैं बरेली के मानसिक चिकित्सालय के उन मरीजों की जो ठीक हो जाने बाद भी वहां रहने को मजबूर हैं। घुट-घुट के जीना उनकी नियति बन चुका है। ऊँची-ऊँची दीवारें,दूर-दूर तक पसरी ख़ामोशी ,मानसिक संतुलन खो चुके मरीजों की सन्नाटे को चीर देने वाली आवाज़,बहार की दुनिया से बेखबर,अन्जान। ऐसे माहौल में रहना इनका नसीब बन चुका है क्योंकि इनके परिवार वाले इन्हें ठुकरा चुके हैं। ये लोग भूल चुके हैं कि इनका कोई अपना है जो ठीक हो जाने के बाद इनके साथ अपने घर जाने की राह देख रहा है लेकिन इनकी आँखे अब राह देखते-देखते पथरा चुकी हैं क्योकि इनके अपने अब इनसे बहुत दूर जा चुकें हैं। बरेली के मानसिक अस्पताल में कई ऐसे रोगी हैं जो पूरी तरह से ठीक हो चुकें हैं और घर जा सकतें हैं लेकिन लोग इन्हें यहाँ छोड़ने तो आतें हैं पर लेने कभी नहीं आते। अस्पताल के नियमानुसार जब तक मरीज को उसके घर से कोई लेने न आये उसे छुट्टी नहीं दी जा सकती। ठीक हो चुके मरीजों की तादात इतनी ज्यादा है कि नए मरीजों को भर्ती करने में काफी दिक्कत आती है। पचास साल तक पुराने मरीज यहाँ भर्ती हैं।
अस्पताल में भर्ती करते समय इनके परिवार वाले पता और टेलिफोन नंबर तक गलत लिखा जातें हैं,जब उनसे संपर्क किया जाता हैं तो पता चलता है कि सारी सूचना ही गलत है। चिकित्सालय प्रशासन की लाख कोशिशों के बावजूद भी इनके घर वालों का कोई अता-पता नहीं चल सका। ऐसे में अब क्या किया जाए चूँकि इन्हें यूँ छोड़ा भी नहीं जा सकता इसलिए इन्हें अस्पताल में रखना मजबूरी है। मनोरोग विशेषज्ञ डा.वी.के श्रीवास्तव का कहना है कि अस्पताल में कई ऐसे मरीज हैं जो पूरी तरह से ठीक हो चुके हैं और घर जा सकतें हैं। ये लोग घर जाकर सामान्य जीवन जी सकतें हैं और परिवार का मॉरल सपोर्ट व भरपूर प्यार मिले तो इन्हें किसी भी दवा की भी कोई जरुरत नहीं है किन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा कम ही होता है। ऐसे बहुत ही कम मरीज हैं जो ठीक जो जाने के बाद वापस अपने घर जा पातें हैं।
स्तिथि बहुत गंभीर है पुराने ठीक हो चुके मरीजों के कारण नए मरीज भर्ती करने में काफी परेशानी होती है क्योकि मरीज ज्यादा हैं और जगह कम..........कई महिलाएं तो ऐसी हैं जिन्हें उनके ससुराल वाले जबरन ये कहकर भर्ती करा गए कि इनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है जबकि वे बिल्कुल ठीक हैं इन महिलाओं ने रो-रो कर कई बार अपनी व्यथा सुनाई है और अपने घर का पता भी बताया है लेकिन इसके बदले में उन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिला है। उनकी हालात ज्यों की त्यों बनी हुई है और ये महिलाएं यहाँ नरक भोगने को विवश हैं। यदि किसी स्वस्थ आदमी को मानसिक रोगियों के बीच छोड़ दिया जाए तो उसकी क्या दशा होगी इसका अंदाजा लगा पाना उन लोगों के लिए तो आसान है जो मानवता को समझतें है बाकीओं के लिए जरा मुश्किल है।
ठीक हो चुके मरीजों के लिए पुनर्वास एक गंभीर समस्या है क्योकि ठीक हो जाने के बाद भी उनके लिए वहां रहना क्या उचित है?क्या वहां का माहौल उन्हें ठीक रहने देगा?इन सब की परवाह किसे है?कोई इनके बारें में सोचना नहीं चाहता और सोचेगा भी भला क्यों इनमे से कोई उनका अपना नहीं है ना ?जब उनके अपने ही उन्हें भूल चुके हैं तो गैरों से उन्हें कोई शिकवा नहीं है। इन्हें दरकार है उस हाथ की जो आगे बढ़कर इन्हें सहारा दे,इनकी धुंधली पड़ चुकी नजरों को नई रौशनी दे। इसकी पहल करने के लिए किसी ना किसी को तो आगे आना ही होगा फिर चाहे वो स्वयं सेवी संस्था हो या जिला प्रशासन। अस्पताल में ये लोग भले ही कुछ ना कुछ काम करके अपना समय काट लेतें हों पर परिवार के साथ समय बिताना किसे अच्छा नहीं लगता। अपने माँ-बाप,भाई-बहन के साथ जिन्दगी के खूबसूरत लम्हे कौन नहीं बिताना चाहता। जिन्दगी है ही इतनी खूबसूरत कि जीने को हर किसी का मन करता है,इन लोगों का भी तो करता होगा?इंसानियत के नाते इन लोगों के बारें में भी सोचने का फ़र्ज़ बनता है हमारा ।
पूजा सिंह आदर्श