Friday, 6 May 2011

दि मोस्ट वांटेड: अभी जिन्दा है दुनिया का सबसे खतरनाक शख्स....


लादेन मारा गया,आख़िरकार अमेरिका ने उसकी मौत पर अपनी मोहर लगा दीजहाँ वो छिपा हुआ था मौत भी उसे वहीँ मिलीपाकिस्तान की सरजमीं जो उसकी पनाहगाह थी,उसकी कब्रगाह भी बनी।उसकी मौत के साथ आतंकवाद से जुड़ा एक अध्याय ख़त्म हो गया। लेकिन लादेन की मौत के बाद उठा सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या उसकी मौत के बाद दुनिया महफूज़ हो गई है????क्या अब आतंकवाद,दहशतगर्दी से हमें छुटकारा मिल गया है???? तो इस सवाल का जवाब सुनने के लिए तैयार रहिये.....और जवाब है.. नहीं..हम आज भी महफूज़ नहीं हैं क्योंकि अभी जिन्दा है वो शख्स जिसे अल्बर्ट किंग ने दुनिया का सबसे खतरनाक शख्स कहा है। उसके सर पे भी दहशतगर्दी का इलज़ाम है। वो भी दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठनों में से एक लश्कर-ऐ -तएबा की सर परस्ती करता है, उसके सर पर भी हजारों का खून है। वो भी अमेरिका से मुहरबंद अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी है। लेकिन वो ओसामा बिन लादेन की तरह कहीं छिपकर नहीं रहता,उसकी तलाश में सैकड़ों सेटेलाइट और ड्रोन आसमान में नहीं मंडराते। वो करांची के शानदार महलनुमा घर में रहता है,आलिशान पार्टियों की मेजबानी करता है। उसकी दावत में न्योते के इंतजार में पाकिस्तान के तमाम जनरल और नेता रहते हैं। जी हाँ.....ये शख्स है... "दाउद इब्राहिम"। जो अपने जुर्म और दहशत के निजाम को एक कम्पनी की तरह चलाता है-डी-कम्पनी।
ओसामा बिन लादेन को पनाह देने वाला,तमाम आतंकवादी अभियानों का फाईनेंसेर ,परमाणु हथियारों का सौदागर,युवा पीढ़ी की नसों में नशे का ज़हर घोलने वाला। देश के गृह-मंत्री पी.चिदम्बरम यह कह सकतें हैं कि हम अमेरिका की तरह दाउद को निशाना नहीं बना सकते,उनकी कोई मजबूरी होगी लेकिन हिन्दुस्तानी आवाम की कोई मजबूरी नहीं है। लादेन के मारे जाने के बाद हर हिन्दुस्तानी के दिल से यही आवाज़ आ रही कि ...बस हमें दाउद ला दो जिन्दा या मुर्दा...... । १९९३ में मुंबई बम कांड में जो लोग इसकी दहशतगर्दी का शिकार हुए और उसके बाद २६ नवम्बर २००८ को मुंबई हमले में जो लोग मारे गए उनके घरवालों के दिलों से तो यही आवाज़ निकल रही है कि जो हाल लादेन का हुआ वही दाउद का भी होना चाहिए। आइये एक नज़र डालतें हैं उसके काले कारनामों पर-
१-१९९३ में मुंबई बम-कांड-२५७ लोग मारे गए।
२-१९९० में अफगानिस्तान गया,और लादेन से मिला।
३-अलकायदा के साथ गठजोड़ ,अमेरिका ने ग्लोबल टेरेरिस्ट घोषित किया।
४-२००८ में गैंग को लश्कर-ऐ-तैयबा से से जोड़ लिया।
५-अलकायदा के टेरर नेटवर्क को हवाला और हथियारों की सपोर्ट।
६-२००१ में गुजरात में आतंकी घटनाओ के लिए फंडिंग।
७-१९९३ के बाद मुंबई की हर आतंकी घटना में डी-कम्पनी का सहयोग।
८-लश्कर के नौसैनिक विंग की पूरी देखरेख दाउद के हाथ में तथा उसी ने २६/११ की घटना को अंजाम दिया।
ये तो है उसके काले कारनामों का चिठ्ठा जो कुछ उसने अब तक किया है जिससे उसे ग्लोबल टेरेरिस्ट घोषित किया गया । इसके आलावा उसका मेन बिजनेस जिसके बल पर वो करता राज.... अकेले मुंबई में डी कम्पनी का अरबों डालर का टर्नओवर है। रिअल ऐस्टेट,हवाला,ड्रग्स,कांट्रेक्ट किलिंग,सट्टा,फ्लैश,ट्रेड में उसका एक छत्र राज चलता है। अफगानिस्तान से ड्रग्स का कच्चा माल दुनिया भर के माफिया तक पहुँचाने की सप्लाई चेन पर भी दाउद का कब्ज़ा है। अमेरिका और यूरोप में अरबों डालर की सम्पत्ति डी कम्पनी के पास है। इसके अलावा बॉलीवुड में भी डी कम्पनी का अच्छा -खासा दखल है। वो यहाँ पैसा लगाने के साथ-साथ नई रीलिज़ में हिस्सा भी लेता है.. यहाँ उसके टेरर हर कोई वाकिफ है। आई.एस.आई का वो खास आदमी है। इसकी मदद से ही वो देश में गुस सके। १९९३ में धमाकों के बाद दाउद आई.एस.आई की मदद से ही दुबई पहुंचा और उसके बाद करांची। तब से वो लगातार यहीं रह रहा है।
अब इतने खतरनाक इन्सान का इस तरह खुला घूमना क्या उन लोगों के साथ गद्दारी नहीं है... जो अपने ही देश में शहीद हुए,आतंकवाद का शिकार हुए। लादेन तो मारा गया अब दाउद क्या करना है या उसका क्या होगा ? ये देखने वाली बात है। वैसे ओसामा की मौत के बाद उसके साम्राज्य की नीव तो हिल गई होगी। अब वो भी जल्द ही पाकिस्तान से बाहर भागने की फिराक में होगा। पाकिस्तान तो हर जुर्म ,हर गुनाह की पनाहगाह है। पाप का घड़ा भर के छलक तो काफी समय से रहा है लेकिन अब इसके फूटने की नौबत आ गई है और इंशाल्लाह वो दिन दूर नहीं जब इन दरिंदो की पनाहगाह ही इनकी कब्रगाह बनेगी।
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday, 27 April 2011

सांप्रदायिक दंगे.....इंसानियत पर सवालिया निशान????


हिन्दू दिखाई दे न मुसलमाँ दिखाई दे
आँखे तरस रही है कि इंसा दिखाई दे।
क्या जिंदगी है नाम इसी का ज़माने में
हर शख्स जिन्दगी से गुजरा दिखाई दे।
धर्म -जात,साम्प्रदायिकता विशेष पहचान है हमारे देश की और इनकी खातिर इंसानियत का दुश्मन बन जाना हमारा अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी। जब देश में कोई आतंकी हमला हो या फिर हमारे पड़ोस में कोई चोर बदमाश गुसकर कोई वारदात कर जाए तो कोई भी खुदा या ईश्वर का बन्दा आपकी मदद करने या आपके हक में बोलने के लिए खड़ा नहीं होगा और एकजुट होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि उसे देश से या आपसे मतलब ही क्या है??ईश्वर या खुदा यहाँ मैंने अलग-अलग इसलिए लिखा है कि हमारे देश के ९०% लोग इन्हें अलग ही समझते हैं केवल १०% लोग ही अपनी सोच को बदल पाए हैं,उसमे खुलापन ला पाए हैं कि हिन्दू,मुस्लिम,सिख,ईसाई सब एक ही परमात्मा की संतान हैं। बाकी तो सबके अलग-अलग भगवन हैं।
धर्म-संप्रदाय के नाम पर तो सब मर मिटने को या मरने-मारने को तैयार हो जातें हैं लेकिन जरा ये कह कर तो देखिये कि सीमा पर जरुरत है आपकी.....तो एक भी आवाज़ नहीं निकलेगी। कहने का मतलब ये है कि हम चाहे कितना भी पढ़-लिख जाएँ ,कितनी भी तरक्की कर लें ,लेकिन हम आज भी गुलाम है,बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। ये बेड़ियाँ हैं साम्प्रदायिकता की ,जातिवाद की। हमें अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ादी तो मिल गई लेकिन इनकी दासता से मुक्ति पता नहीं कब मिलेगी??यदि हम साम्प्रदायिकता के गुलाम न होते तो जो तीन दिन पहले मेरठ में हुआ वो न होता। हुआ ये कि कुछ गैर मुस्लिम उपद्रवी तत्वों ने मस्जिद में घुसकर वहां के इमाम से अभद्रता की,मारपीट की,और धर्मग्रन्थ को भी नुकसान पहुँचाया बस फिर क्या था बवाल तो होना ही था।लोग इकट्ठे होकर सड़कों पर उतार आये और देखते ही देखते ये घटना हिन्दू-मुस्लिम दंगे में तब्दील हो गई। मेरठ वही जगह है जहाँ से अमर शहीद मंगल पाण्डेय ने १८५७ में आज़ादी की लड़ाई का बिगुल बजाया था। ऐसी पावन धरती को न जाने क्यों बार-बार अपनी परीक्षा देनी पड़ती है।
मेरठ सांप्रदायिक मामलो में पहले से ही काफी संवेदनशील रहा है। यहाँ हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़कने का इतिहास पुराना है। इस बार भी ऐसा ही हुआ देखते ही देखते पूरा शहर सुलग उठा। चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल,आगजनी,पथराव,भगदड़ और पुलिस की फायरिंग। बसों में आग लगा दी,तीन पुलिस चौकियां फूँक दीं,दुपहिया वाहनों में आग लगाई,कई पुलिस वाले जख्मी हुए। गनीमत ये रही कि कोई हताहत नहीं हुआ। पूरा इलाका छावनी में बदल गया। स्कूल कॉलेज बंद कर दिए गए।
मेरठ में इन दिनों ऐतिहासिक नौचंदी मेला अपने पूरे शबाब पर है और उस रात को भी मेले में भीड़ अपने चरम पर थी। जैसे ही शहर में दंगा होने की खबर फैली मेले में भगदड़ मच गई, लोग अपने घरों की तरफ भागने लगे क्योकि जहाँ दंगा हुआ वो जगह मेले के पास ही है। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से भीड़ को काबू में किया तब जाकर स्तिथि नियंत्रण में हो पाई वरना कितना बड़ा हादसा हो सकता था,कितने बेक़सूर लोग मारे जाते। लेकिन इस सब से इन लोगो को क्या सरोकार जो देश की शांति भंग करना चाहतें हैं.जो ये नहीं चाहते कि देश में अमन-चैन कायम रहे। उनका तो मकसद ही ये है कि पहले तो दंगा भड़का दो फिर उसे राजनैतिक रंग दे दो। जान माल का नुकसान हो जाने के बाद शुरू होता है आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला। गाज गिरती है पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों पर । या तो इनका तबादला कर दिया जाता है या जिसकी ज्यादा किस्मत ख़राब हो उसे सस्पेंड। हर हाल में दोषी अफसर ही पाए जातें हैं। अब ये लोग तो गए नहीं थे दंगाइयों को दावत देने कि आओ और लगा दो आग शहर को। इनके पीछे जो असली चेहरें हैं उन्हें बेनकाब कोई नहीं करना चाहता क्योंकि जो ये सब कर रहें हैं उसमे इन लोगों का अपना फ़ायदा है।
राजनेताओं से,शहर के मेयर से,आला अफसरों से क्या उम्मीद की जा सकती है???ये बेचारे तो खुद ही इतने व्यस्त हैं कि इनके पास आम जनता के लिए समय ही नहीं है....न समय है,न नीयत है। हमें आदत पड़ गई है बात-बात पर इनके तलवे चाटने की। इनका इलाज तो ये है कि इनके किसी सड़े हुए अंग की तरह काट फेंकों तभी इन्हें अपनी असली औकात पता चलेगी। हमें ही समझना होगा...अपने आप को और अपनी सोच को बदलना होगा कि सब धर्म सामान है,उनके साथ न तो किसी किस्म की अभद्रता स्वयं करे और न दूसरों को करने दे।जिस प्रकार हमें अपना धर्म प्रिय है उतना ही सम्मान आप दूसरें धर्म को भी दें।दूसरे धर्म का अपमान बर्दाश्त करना मानवता नहीं है। यदि किसी ने कोई ऐसी शर्मनाक हरकत की है तो उसकी शिकायत पुलिस-प्रशासन से करें न कि भावनाओं में बहकर दंगा -फसाद करें। अरे.... धर्म-जात तो बाद में है सबसे पहले तो हम इन्सान हैं,,,,हम सब भारतीय हैं.लड़ाई झगडे से तो अपनों को ही नुकसान पहुंचा रहे हो......बस एक बार अपनी अंतरात्मा से पूछ कर देखो कि जिन घरों में आग लगा रहे हो.... क्या वो आपके अपने नहीं हैं?????????मुट्ठी भर स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर अपनों का घर मत जलाइए।
इस घटना पर मुझे अपने ही शहर में अपनों का दंश झेल चुके डा.बशीर बद्र का एक शेर याद आता है कि.....
लोग टूट जातें हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।
पूजा सिंह आदर्श

Thursday, 21 April 2011

फीकी पड़ती जा रही ज़री कारीगरी की चमक......


हमारे देश में बहुत सी जगह ऐसी हैं जिनकी पहचान या तो वहां पैदा होने वाली चीजों से होती है या फिर वहां के उद्दयोग -धंधो सेजैसे-लखनऊ अपनी चिकिनकारी,अलीगढ अपने ताला उद्दयोग,मेरठ कैंची खेल का सामान बनाने के लिए,मुरादाबाद पीतल उद्दयोग के लिए विश्व-प्रसिद्ध है ठीक वैसे ही उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शहर बरेली जो बांस-बरेली के नाम से भी जाना जाता है अपने ज़री-ज़रदोज़ी के काम के लिए भी शुरू से ही जाना जाता है। वैसे तो बरेली में और भी उद्दयोग धंधे हैं जिनके लिए बरेली विश्व-प्रसिद्ध है...आइये एक नजर इन् पर भी डालते हैं-बांस(केन)उद्दयोग,इमारती लकड़ी से बना फर्नीचर उद्दयोग,पतंग व मांझा उद्दयोग और बेहद प्रसिद्ध आँखों में डाले जाने वाला सुरमा। इन सबके ऊपर बरेली की असली पहचान है यहाँ की परंपरागत ज़री-ज़रदोज़ी...जिसके कारण ही बरेली को नाम दिया गया ज़री नगरी। ज़री के काम की खासियत ये होती है कि ये काम हाथ से किया जाता है,इसमें किसी भी तरह की मशीन का कोई इस्तेमाल नहीं होता है। हाथ से किया गया ये काम इतना बारीक़ और खूबसूरत होता है कि कोई भी इसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकता। हाथ से की गई इस कारीगरी में एक डिजाइन को पूरा करने में कई-कई दिन लग जाते हैं। लकड़ी का अड्डा(फ्रेम)बनाकर उसमे सलमा-सितारे,कटदाना,कसब,नलकी,मोती,स्टोन आदि बड़ी सफाई टांके जाते है। जितने कम दामो पर इसका मैटीरीयल आता है और जितने कम मेहनताने पर ये तैयार हो जाता है और उतनी ही ऊँची कीमत पर डीलर व दुकानदार ग्राहकों को बेचतें हैं। हाथ की इतनी सफाई व आकर्षक कसीदाकारी देखकर ग्राहक मुहं मांगे दाम देकर खरीदता है। मिसाल के तौर पे अगर कोई परिधान १००० में तैयार होता है तो दुकानदार इसे दुगने दाम में बेचकर डबल मुनाफा कमाता है। लेकिन यहाँ यह सब लिखने का क्या तात्पर्य है.....ज़री कारीगर को इस मुनाफे से क्या मिलता है?कुछ नहीं ....इस लिए ये हुनर धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । मेहनत ज्यादा और मजदूरी कम इस बात ने कारीगरों के हौसले को तोडना शुरू कर दिया है अब वे इस काम को करने में रूचि नहीं दिखा रहे हैं। जो कम उन्हें दो वक़्त की रोटी ठीक से नहीं दे पा रहा हो उसे करने से क्या फ़ायदा है। इसलिए ये लोग अपने लिए दूसरा रोज़गार तलाशने लगे हैं। लेकिन उनके पास रोज़गार का कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है। बारीक़ सुई पकड़ने के आदि हाथ कोई दूसरा औजार कैसे पकड़ सकते हैं। ज़री कारीगर ये रोज़गार अपनी ख़ुशी से छोड़ने को तैयार नहीं है। अगर उन्हें भी अपनी मेहनत की अच्छी मजदूरी मिले तो वे इस खूबसूरत कला को आगे कई वर्षों तक चला सकतें हैं। इस कला के सामने एक समस्या और भी है कि भावी पीढ़ी इसमें कोई रूचि नहीं दिखा रही है इनका मानना है कि जो काम हमारे बाप-दादा ने किया बस उतना ही काफी है। इस रोज़गार ने उनका ही क्या भला किया ????इसमें हमारा कोई भविष्य नहीं है। पुराने कारीगरों के बच्चे अपने पुश्तैनी काम से दूर होते जा रहे हैं,जिससे ज़री कारीगरी का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
कुछ अपनों की उपेक्षा,कुछ सरकार की उपेक्षा ने इन हुनरमंदों का मनोबल तोड़ सा दिया है। मुग़ल काल में नूर जहाँ ने जिस कला को प्रोत्साहन देकर उसे आज तक जिन्दा रखा ,,आज सरकार उसकी अनदेखी कर उसे लुप्त होने पर विवश कर रही है। बदलते फैशन के इस युग में चाहे कितनी भी क्रांति क्यों न आ जाए लेकिन ज़री-ज़रदोज़ी के बिना फैशन पूरा नहीं होता। ज़री कारीगरों का अस्तित्व बचाने के लिए जरूरी है कि इन कारीगरों को बचाया जाए तभी हम इस नायाब कला को सहेज कर रख पाएंगे।
पूजा सिंह आदर्श

Thursday, 24 March 2011

घी हमेशा टेढ़ी ऊँगली से ही निकलता है.....

जीवन एक सपूर्ण पाठशाला है...इस बात से हम और आप इंकार नहीं कर सकते क्योकि इस पाठशाला में हमें रोज कुछ कुछ सीखने को मिलता हैजिन्दगी आपको हर रोज एक नया अनुभव कराती है,,जो आगे चलकर आपके जीवन में कही कहीं काम सकता हैऐसा ही एक अनुभव आज हमने भी किया जो हमें जिन्दगी भर याद रहेगा। दरअसल हुआ कुछ यूँ कि....हमने एक सरकारी नौकरी के लिए आवेदन पत्र भरा जिसके लिए मुख्य चिकित्साधिकारी के द्वारा एक फिटनेस प्रमाण-पत्र बनवाना जरूरी था और इसे बनवाने के लिए हम जा पुहंचे जिला चिकित्सालय जहाँ पहुँचते ही हमारी रूह फ़ना हो गई.... देखा कि बेरोजगारों की इतनी भीड़ जमा है जो अपना फिटनेस प्रमाण -पत्र बनवाने आये हैं। एक बार को तो लगा कि भैया निकल लो यहाँ से.... यहाँ कुछ नहीं होने वाला...लेकिन फिर अपने आप को दिलासा दी और खुद का हौसला बढाया कि ऐसे हिम्मत हारने से तो काम नहीं चलेगा। फिर लोगो से पूछते-पाछते परचा बनवाया और लग गए खुद को फिट साबित करवाने की लाइन में...भीड़ को चीरते हुए आखिर हम डाक्टर साहब तक पहुँच ही गए और लगवा लिया ठप्पा अपने पर्चे पर कि हम बिल्कुल स्वस्थ हैं। इसके बाद दूसरा पड़ाव था... नेत्र विभाग में जाँच करवाने का लेकिन .... थोड़े से कष्ट के बाद हमने इस पड़ाव को भी पार कर लिया। आगे की डगर थोड़ी, नहीं बहुत कठिन थी जहाँ करानी थी अपनी नाप-तोल...वहां का द्रश्य देखने के बाद अच्छे -अच्छों की हिम्मत न हो कि उस जगह घुस पाए। भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उसे नियंत्रित करने के लिए पुलिस फोर्स बुलानी पड़ी और लड़के-लड़किओं की अलग-अलग लाइन बनवा दी गई। जैसे-तैसे करके हम भी लाइन में लग गए। धक्का-मुक्की ,नोक-झोंक के बीच लाइन रेंग-रेंग कर खिसक रही थी,लग रहा था कि मानो जस की तस है लाइन....जैसे जैसे हमें अपनी मंजिल करीब आती दिखी थोड़ी तस्सली मिली कि अब हमारा काम बन जायेगा लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि अगले ही पल क्या होगा ये नहीं कहा जा सकता????शायद हमने भी नहीं सोचा था कि हमें भी कुछ ऐसा करना पड़ जायेगा। हुआ कुछ यूँ कि जब लाइन आगे बढ रही थी इसी बीच देखा कि एक-दो सिफारशी लोगों ने अपने जानने वालो को अंदर भेज दिया वहां सुबह से लाइन में कड़ी लड़किओं ने शोर मचाना शुरू कर दिया,देखा तो मैंने भी था लेकिन नजरंदाज़ कर दिया और लड़किओं को भी शांत रहने को कहा लेकिन सब्र का बांध तब टूटा जब एक वर्दी धारी को अपनी वर्दी का फ़ायदा उठाते हुए देखा,उसने अपनी रिश्तेदार को चुपके से अंदर भेज दिया जब हमने इसका विरोध तो उसने बदतमीज़ी करनी शुरू कर दी.... फिर क्या था ???उसकी इस हरकत ने हमें अपना आपा खोने पर मजबूर कर दिया क्योंकि वर्दी वालों को कुछ गलत करते देख बर्दाश्त नहीं होता ....उसे सबक सिखाना जरूरी था।इस लिए हमने चढ़ाई अपनी आस्तीने और कूद गए मैदान-ऐ-जुंग में। इसके लिए मुझे न चाहते हुए भी अपने फ़ोन को कष्ट देना पड़ा और उसकी शिकायत उसके सिनिअर अफसर से करनी पड़ी। वहां इस बात को लेकर हंगामा खड़ा हो गया सभी ने मेरा साथ दिया। उस वर्दी धारी के तो जैसे होश ही उड़ गए। उसे भी लगा तो होगा कि उसने किस मुसीबत को को न्यौता दे दिया। जब उसे लगा कि बेटा तू गलत फँस गया तो वहां से खसक लिया। तब कहीं जाकर वहां कड़ी लड़किओं को शांति मिली और मुझे भी इसका फ़ायदा यह हुआ कि उसके बाद बस लड़किओं का ही नंबर आया। ऐसा करना या वहां कोई हंगामा करना मेरा मकसद नहीं था लेकिन हालात ने मजबूर कर दिया। इसके बाद मेरी आत्मा को जो संतोष मिला उसका कोई मोल नहीं है।
यहाँ ये सब लिखने का मेरा सिर्फ ये मकसद है कि अपने देश को आदत पड़ चुकी है टेढ़ी ऊँगली से घी निकलवाने की..जब तक आप सीधे बने रहो तब तक हर कोई आपको कुचल कर आगे बढ जाना चाहता है लेकिन जहाँ आपने अपनी आँखें टेढ़ी की वही सब सीधे हो जातें हैं। लड़किओं को कमजोर समझने की भूल करने वालों को को हम बता देना चाहतें हैं की बदल लें अपनी सोच इसी में समझदारी है वरना इसी तरह मुंह की खानी पड़ेगी। और थोड़ी सी मेहरबानी करें अपने देश पर कि उसे और कलंकित न करे इस तरह की शर्मनाक हरकत करके।
पूजा सिंह आदर्श

Monday, 21 March 2011

मेरे प्यारे मित्रों,,,,,,,पाठकों और उन सभी लोगों को जो मेरे लेखों को पढ़ना पसंद करतें हैं और मेरी हौसलाअफजाई करतें हैं ......उन सभी सम्मानित व्यक्तियों को मेरा सादर प्रणाम....आप सभी लोग यह सोच रहें होंगे की पता नहीं ये मोहतरमा न जाने कहाँ गायब हो गई.....काफी लम्बे समय से इनका कोई अता-पता नहीं है....वैसे मेरे लिखने या न लिखने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि लिखने वालों की कोई कमी नहीं है फिर भला मुझ जैसे लेखक की किसी को याद क्यों आने लगी????खैर मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योकि हम दूसरों के लिए नहीं बल्कि अपनी ख़ुशी और संतुष्टि के लिए लिखतें हैं। कुछ व्यक्तिगत कारणों से मुझे अपनी लेखनी को एक अल्पविराम देना पड़ा था लेकिन अब मैंने इसे वापस गति देने की ठान ली है और अब मेरी कोशिश रहेगी कि इसे कभी विराम न देना पड़े। इतने दिनों से कुछ नहीं लिखा, इस बीच काफी सारे मुद्दे निकल गए जिनपर चाहकर भी कुछ नहीं लिख पाए कभी-कभी इन्सान इतना मजबूर हो जाता है कि चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाता। चलिए जाने देतें हैं इन बातों.....पिछले दिनों जापान में जो कुछ भी हुआ....प्रकृति ने जो विनाश लीला वहां मचाई उस के आगे हम सब बेबस होकर बस प्रार्थना ही कर सकतें हैं कि ईश्वर उन्हें फिर सम्भलने का हौंसला दे...और जिन्होंने अपनों को खो दिया उन्हें इस दुःख से उबरने कि हिम्मत दे। प्रकृति के आगे इन्सान बेबस है,उसके आगे घुटने टेकने के आलावा हम कुछ नहीं कर सकते।जापान जैसी हालात कभी भी किसी की न हो ऐसी ऊपर वाले से दुआ करतें हैं। इस दुआ के साथ......आप सब के साथ हमेशा और लगातार बने रहने की मेरी भी कोशिश रहेगी.....और इसके लिए मुझे आप सब के प्यार,आशीर्वाद,सहयोग और समर्थन की जरुरत पड़ेगी.....मुझे पूरी उम्मीद है कि आप लोग इसमें कोई कमी नहीं रहने देंगे ...इसी आशा के साथ...
पूजा सिंह आदर्श

Wednesday, 22 September 2010

दबंग की दबंगई में दम है......भाई.....

बहुत दिनों से किसी फिल्म के बारे में कुछ नहीं लिखा,क्योंकि काफी टाइम से कोई फिल्म देखी भी नहीं थी,अभी ३-४ दिन पहले सलमान खान की दबंग देखी,फिल्म मुझे पसंद आयी और फिर सोचा कि अपनी लेखनी को इस तरफ मोड़ा जाए।कोई भी फिल्म जल्दी से मुझे इम्प्रेस नहीं करती है पर इस फिल्म ने ताजगी का अहसास कराया।सलमान का फ्रेश लुक ,सोनाक्षी का ताजगी और मासूमियत भरा चेहरा.....सलमान की दबंग फिल्म रिलीज हो के हिट भी हो गई...ईद-उल-फितर के मौके पर रिलीज़ होने के कारण और इसके आस-पास कोई फिल्म रिलीज़ होने के कारण इसे भरपूर फ़ायदा मिला ....बहरहाल कारण जो भी हो पर फिल्म तो हिट है और सलमान भाई के खाते में एक और सुपरहिट फिल्म का इजाफा हो गया.....अब दबंग की तूती बोल रही है और बोले भी क्यों न....आखिर उनकी दबंगई में तगड़ा दम है भाई। कसा हुआ और एकदम फिट शरीर...उस पर स्टायलिश मूंछे...जो इंस्पेक्टर चुलबुल पाण्डेय यानि सलमान की पर्सनालिटी को एकदम सूट कर रही हैं...उसपर काला चश्मा और उसे बड़े स्टाइल के साथ पीछे शर्ट के कॉलर पर लगाना...और फ़ॉर्मल कपड़ों का मतलब सिम्पल पैंट-शर्ट का क्या गज़ब कॉम्बीनेशन पहना है पाण्डेय जी ने....क्या लगे हैं सलमान इस फिल्म में,वैसे सलमान की फ़िल्में देखने का मुझे कोई खास शौक नहीं है। सच बात बताऊँ तो मैंने ये फिल्म सोनाक्षी सिन्हा की वजह से देखी..चलिए उनकी बात बाद में करेंगे पर फिल्म में सलमान ने मुझे काफी इम्प्रेस कर दिया,ये तो रही फिल्म देखने की वजह,,,,,,अब आगे बढ़ते हैं। सलमान के कपड़ों के बाद फिल्म में जो खास है वो है ....मिर्ची का तड़का यानि एक्शन और कॉमेडी का बेहतरीन तालमेल.....जो पूरी फिल्म की जान है। इसके बाद बारी आती है उस खासियत की जो फिल्म की धड़कन है और फिल्म में रक्त -संचार का काम करती है,,,, वो है इस फिल्म का संगीत......जो काफी पहले ही हिट हो चुका है....तेरे मस्त-मस्त दो नैन.... सबका चैन चुराने में कितने कामयाब रहे, ये बताने की शायद जरुरत नहीं है......मुन्नी भी काफी बदनाम हो चुकी है। हम यहाँ कोई समीक्षा नहीं कर रहे हैं,ये मेरा अपना अनुभव है,जो कुछ भी मैंने महसूस किया वो लिख दिया बस इतनी सी ही बात है। दरअसल बात यह है की हमारे समाज में फिल्मों के नायक बड़ा अहम् रोल निभातें हैं...जो कुछ भी कमाल वो परदे पर करतें हैं पब्लिक उनसे इम्प्रेस हुए बिना नहीं रह पाती ....खाकी वर्दी पहने हुए दबंग के रूप में उन्हें अपना नया नायक मिल गया है। फिल्म की हेरोइन सोनाक्षी के बारें में क्या कहें,उन्होंने बॉलीवुड को नई संभावनाएं दे दीं हैं.....अपनी पहली फिल्म में ही परिपक्व अभिनय करके ये बता दिया है कि एक्टिंग उनके खून में हैं जो उन्हें विरासत में मिली है। अभिनय और खूबसूरती का अनूठा संगम हैं सोनाक्षी.....इसके आलावा अरबाज़ भी मक्खी के किरदार में खूब जमे हैं,,,,महेश मांजरेकर ने शराबी का छोटा सा रोल निभा के ये बता दिया कि एक्टिंग के वो एक मंझे हुए खिलाडी हैं......सोनू सूद के रूप में बॉलीवुड को अपना नया विलेन मिला है। जिनसे विलेन के किरदार की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. पूरे बॉलीवुड मसाले के साथ तैयार की गए गई फिल्म कुलमिलाकर फुल-टू पैसा वसूल है। चुलबुल पाण्डेय का जादू चल गया.....और फिल्म हो गई सुपर-डुपर हिट....वो भी दबंगई के साथ......
पूजा सिंह आदर्श

Thursday, 9 September 2010

जब मैंने पहली बार बिग बी को देखा.......


पत्रकारिता ने हमेशा से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित किया और मैंने एक पत्रकार बनने का सपना अपनी आँखों में सजायाबस अपने इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने एम.जे.पी रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली में पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला ले लिया। बात वर्ष २००१ की है। पत्रकार बनने का जुनून सर पे इस कदर सवार था कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए बस पत्रकार बनना है।पत्रकारिता की कक्षाएं शुरू होने के बाद हमें असाइनमेंट मिलने लगे थे और हम पूरे जोश व उत्साह के साथ इस काम को पूरा करने में जुट जाते थे। शुरुवात में तो हमें छोटे-छोटे असाइनमेंट दिए गए जिन्हें हमने समय से पूरा करके अपने एच.ओ.डी की नजरों में एक खास जगह बना ली थी ,अपनी इसी छवि के कारण हमें एक दिन वो असाइनमेंट मिला जिसका इंतजार हर उस फ्रेशर को होता है जो अपने कैरिएर की शुरुवात करने जा रहा हो-----------हमें काम मिला रामपुर में होने वाली श्री अमिताभ बच्चन की रैली को कवर करने का और इसके लिए तीन लोगों का ग्रुप बना दिया गया। मैं,मेरा सहपाठी मुकुल सक्सेना और दीक्षा। हम तीनो को ही रामपुर रवाना होना था लेकिन ऐन वक़्त पर दीक्षा का जाना कैंसिल हो गया,एक बार को तो ऐसा लगा कि शायद हम भी नहीं जा पाएंगे लेकिन हमने तो ठान लिया था कि जाना तो जरूर है। रिपोर्टिंग के लिए एक बार को न सही पर बिग बी को तो हर हाल में देखना ही था। फिर ऐसा मौका हमें दोबारा कहाँ मिलता??????????ये दिसम्बर की बात है ,,,सर्दिओं के दिन थे इसलिए निकलते-निकलते ही हमें देर हो गई। बरेली से रामपुर की दूरी ६५ किमी है।
जब तक हम वहां पहुंचे रज़ा कॉलेज रैली का मैदान खचा-खच भर चुका था पैर तो क्या तिल रखने भर को जगह नहीं थी। जैसे-तैसे भीड़ को चीरते हुए हम प्रेस गैलरी तक पहुंचे ,यहाँ तक पहुँचने में बैरीकेटिंग को पार करते समय मेरे घुटने में भयंकर चोट लग गई थी,उसमे से खून रिस रहा था।लेकिन बिग बी को देखने व सुनने के लिए ये कीमत बहुत कम थी। प्रेस गैलरी में मीडिया कर्मिओं का जमावड़ा लगा था। भीड़ अमिताभ बच्चन जिंदाबाद के नारे लगा रही थी.......श्री बच्चन अपने निर्धारित समय से करीब २ घंटे देरी से पहुंचे।मंच के ठीक पीछे ही हैलीपैड बनाया गया था....जिस पर देखते ही देखते धूल उडाता हुआ हैलीकॉप्टर उतरा और फिर उसमे से नीला सूट पहने उतरे श्री अमिताभ बच्चन....... जिन्हें देखते ही बस ऑंखें ठहर सी गई और सारी तकलीफें भी ख़तम हो गई......बिग बी हमसे कोई दस कदम की दूरी पर थे.....कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि बिग को देखने या उनसे कोई सवाल करने का मौका भी मिलेगा....बिग बी आए मंच पर और उनके साथ थी जया बच्चन ,अमर सिंह और मुलायम सिंह और आज़म खान । जब बिग बी ने बोंला शुरू किया तो बस तालियों की गडगडाहट ही सुनाई दी.....क्या बोलतें हैं बिग बी......धारा प्रवाह हिंदी......भाषा पर ऐसा नियंत्रण ऐसा कि अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाए.....करीब आधा घंटा मंच पर बिताने के बाद जब उन्होंने वापस हैलीपैड की ओर रुख किया तो रास्तें में मीडिया वालों ने उन्हें रोक लिया जो कि बहुत स्वाभाविक था। हम सब इतनी देर से इंतजार जो कर रहे थे.....बिग बी के रुकते ही मीडिया ने उन पर सवालों की बौछार कर दी...इन्ही सवालों के बीच एक सवाल मैंने भी कर ही डाला जिसके लिए मैंने खुद को तैयार नहीं किया बस सहसा ही मुंह से निकल गया कि..... गाँधी परिवार से इतनी दूरी क्यों????इस पर उन्होंने भी तपाक से बोल दिया कि वक़्त-वक़्त की बात है....मुझे मेरा जवाब मिल गया था......मेरे लिए बस इतना ही काफी था, इसके बाद और कुछ पूछा ही नहीं गया और किसी और ने क्या पूछा ये भी याद नहीं.....मीडिया के सवालों के जवाब सभी ने दिए...इसके बाद सब एक-एक करके हैलीकॉप्टर की ओर बढ़ गए....और धूल के गुबार के साथ पलक झपकते ही गायब हो गए.....एक नायब व्यक्तित्व के मालिक हैं बिग बी....उनके जैसा कोई न तो है और न ही हो सकता है।
मेरे जीवन का ये सबसे सुखद संस्मरण है...जिसे आप सब से बाँट कर जो अनुभूति मुझे मिल रही है उसका तो कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता।उसके बाद मैं और मुकुल दोनों देर रात बस का सफ़र करके बरेली पहुंचे....अगर हम अपने कुछ साथ लाये थे तो वो थी... बिग बी... की छवि और उस रैली का अविस्मर्णीय अनुभव .......
पूजा सिंह आदर्श