यूँ सिसक-सिसक के जीना कोई जिंदगी नहीं है ।
२०-४-१० को मेरठ के सरे अख़बारों में जो सुर्खी थी उसे देखकर दिमाग भन्ना गया,जितना दिमाग ख़राब हुआ उससे कहीं ज्यादा मन को पीड़ा हुई. पुलिस विभाग के एक वर्दीधारी सिपाही के शव को फाँसी के फंदे पर झूलता हुआ देख कर उपरोक्त पंक्तियाँ सहसा मेरे मन पटल पर उभर आई।
देश-प्रदेश की आन्तरिक सुरक्षा का भर उठाने वाला एक पुलिस कर्मी आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है यह कोई साधारण बात नहीं है। किसी इन्सान को ऐसा भयानक कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाली परिस्तिथियाँ दो-चार दिनों में उत्पन्न नहीं होती हैं बल्कि इसके पीछे घोर निराशा और दम घोटने वाला माहौल होता है। जब घुटन हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब इन्सान ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। मैंने ये बात यूँ ही नहीं लिख दी है बल्कि मुझे खुद को अनुभव है इस बात का क्योंकि मेरे पिता ने इस विभाग की ३६ साल तक सेवा की है और उन्हें कई बार ऐसे हालात में देखा है कि जहाँ ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि अपने दिल की सुने या दिमाग की। अपने ज़मीर को मारकर कोई खुद्दार आदमी चैन से कैसे रह सकता है ।
आइये पुलिस विभाग की अंदरूनी तस्वीर की समीक्षा करतें है,पुलिस विभाग को संचालित करने वाला पुलिस रेगुलेशन एक्ट लगभग १५० साल पहले हमारे अंग्रेजी शासकों ने बनाया था जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस कर्मी सप्ताह के सातों दिन व दिन के २४ घंटे का मुलाजिम होता है,उसे कभी भी ड्यूटी के वास्ते तलब किया जा सकता है । अंग्रेज़ बहादुर तो अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाकर चले गए लेकिन देश की आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी देश-प्रदेश के कर्णधारों को इस प्रकार के अव्यवहारिक नियमों पर विचार करने का समय नहीं मिला। दुनिया में श्रम क्रांति हुई श्रमिकों के लिए दिन में ८ घंटे काम करने का नियम बना लेकिन पुलिस विभाग इससे वंचित रहा ।
पुलिस विभाग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस विभाग की जिम्मेदारियों और संसाधनों में बहुत बड़ा गैप है। आज़ादी के बाद से पुलिस के दायित्वों में तो कई गुना इजाफा हुआ है लेकिन उसके अनुपात में पुलिस के संसाधन एक चौथाई भी नहीं बढे हैं। सबसे ख़राब स्तिथि थानों की है । एसएचओ या एसओ को छोड़कर अन्य सभी पदों के कर्मचारियों के स्थान रिक्त पड़े हैं जिन्हें भरने की कोई तर्कसंगत योजना सरकार के पास नहीं है। नगरों की ट्रेफिक -व्यवस्था,थानों का पहरा,ड्यूटी,पोस्टमार्टम करने तथा अभियुक्तों को कोर्ट में पेश करने के कार्यों में अगर होमगार्ड सहायक न हों तो पुलिस विभाग का काम चार दिन भी नहीं चल सकता।
देश की आबादी बढ़ रही है,बेरोज़गारी बढ़ रही है ,युवा वर्ग में असंतोष व्याप्त है जिसके फलस्वरूप अपराध बढ़ रहा है। चेन स्नेचिंग बढ़ी है,पर्स,मोबाइल,हैण्डबैग,लैपटॉप सरे आम लूटे जा रहे हैं और थानों में कोई एफआईआर दर्ज करने को भी तैयार नहीं है क्योंकि एक ओर तो अपराध का ग्राफ बढेगा और दूसरी ओर तफ्तीश के लिए स्टाफ कहाँ से आएगा? पिछले लगभग दो दशकों में पुलिस की कार्यशैली और उसकी संस्कृति में भयंकर बदलाव आया है,पुलिस के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में राजनैतिक दखल इस हद तक बढ़ा है कि जो पुलिस कर्मी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करतें हैं उन्हें मनचाही बढ़िया पोस्टिंग मिलती है और शेष तो धूल चाटते फिरतें हैं। एक और भयानक रोग जो घुन की तरह इस विभाग को खोखला कर रहा है वह है भ्रष्टाचार, पहले सुना जाता था कि कहीं-कहीं पुलिस वाले हफ्ता वसूल करते थे अब यह सुनने में आता है कि पुलिस वाले अपनी कुर्सी बचाने के लिए हफ्ता अदा कर रहें हैं। ईश्वर ही जानता है कि सच क्या है और इसका परिणाम क्या होगा ?पुलिस विभाग की सेवा शर्तें बहुत कठिन और कष्टदायक हैं ,थाना स्तर के कर्मचारियों की स्तिथि तो सबसे अधिक दयनीय है। मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। रहने को आवास नहीं है,समय पर अवकाश नहीं मिलता,प्रोन्नति के अवसर ना के बराबर हैं। खाना खाने,सोने व आराम करने का कोई समय नहीं है। जनता के मन से पुलिस का भय और सम्मान निकल चुका है। रास्ता जाम,थाने का घेराव,पथराव,पुलिस कर्मियों से हाथापाई अब रोज़ की बात हो गई है।
थाने की जीप में तेल अपनी जेब से डलवाना पड़ता है,दफ्तर में इस्तेमाल होने वाली स्टेशनरी भी खुद ही खरीदनी पड़ती है। अतः इस प्रकार के दम घोटू माहौल में यदि कोई संवेदनशील पुलिस कर्मी आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी घटना दुखद तो जरूर होती है लेकिन आश्चर्यजनक बिल्कुल नहीं।
पुलिस की सेवा-शर्तों में सुधार के लिए आयोग तो कई बने लेकिन उनकी सिफारिशें गृह-मंत्रालय के रिकॉर्ड रूम में धूल चाट रहीं हैं इससे पहले कि स्तिथि विस्फोटक हो जाए शासन-प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए वरना बदमाशों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले पुलिस कर्मी खुदखुशी करने पर मजबूर हो जायेंगे।
पूजा सिंह आदर्श
देश-प्रदेश की आन्तरिक सुरक्षा का भर उठाने वाला एक पुलिस कर्मी आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है यह कोई साधारण बात नहीं है। किसी इन्सान को ऐसा भयानक कदम उठाने के लिए मजबूर करने वाली परिस्तिथियाँ दो-चार दिनों में उत्पन्न नहीं होती हैं बल्कि इसके पीछे घोर निराशा और दम घोटने वाला माहौल होता है। जब घुटन हद से ज्यादा बढ़ जाती है तब इन्सान ऐसा कदम उठाने को मजबूर हो जाता है। मैंने ये बात यूँ ही नहीं लिख दी है बल्कि मुझे खुद को अनुभव है इस बात का क्योंकि मेरे पिता ने इस विभाग की ३६ साल तक सेवा की है और उन्हें कई बार ऐसे हालात में देखा है कि जहाँ ये तय करना मुश्किल हो जाता है कि अपने दिल की सुने या दिमाग की। अपने ज़मीर को मारकर कोई खुद्दार आदमी चैन से कैसे रह सकता है ।
आइये पुलिस विभाग की अंदरूनी तस्वीर की समीक्षा करतें है,पुलिस विभाग को संचालित करने वाला पुलिस रेगुलेशन एक्ट लगभग १५० साल पहले हमारे अंग्रेजी शासकों ने बनाया था जिसके अनुसार प्रत्येक पुलिस कर्मी सप्ताह के सातों दिन व दिन के २४ घंटे का मुलाजिम होता है,उसे कभी भी ड्यूटी के वास्ते तलब किया जा सकता है । अंग्रेज़ बहादुर तो अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाकर चले गए लेकिन देश की आज़ादी के ६० वर्षों बाद भी देश-प्रदेश के कर्णधारों को इस प्रकार के अव्यवहारिक नियमों पर विचार करने का समय नहीं मिला। दुनिया में श्रम क्रांति हुई श्रमिकों के लिए दिन में ८ घंटे काम करने का नियम बना लेकिन पुलिस विभाग इससे वंचित रहा ।
पुलिस विभाग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस विभाग की जिम्मेदारियों और संसाधनों में बहुत बड़ा गैप है। आज़ादी के बाद से पुलिस के दायित्वों में तो कई गुना इजाफा हुआ है लेकिन उसके अनुपात में पुलिस के संसाधन एक चौथाई भी नहीं बढे हैं। सबसे ख़राब स्तिथि थानों की है । एसएचओ या एसओ को छोड़कर अन्य सभी पदों के कर्मचारियों के स्थान रिक्त पड़े हैं जिन्हें भरने की कोई तर्कसंगत योजना सरकार के पास नहीं है। नगरों की ट्रेफिक -व्यवस्था,थानों का पहरा,ड्यूटी,पोस्टमार्टम करने तथा अभियुक्तों को कोर्ट में पेश करने के कार्यों में अगर होमगार्ड सहायक न हों तो पुलिस विभाग का काम चार दिन भी नहीं चल सकता।
देश की आबादी बढ़ रही है,बेरोज़गारी बढ़ रही है ,युवा वर्ग में असंतोष व्याप्त है जिसके फलस्वरूप अपराध बढ़ रहा है। चेन स्नेचिंग बढ़ी है,पर्स,मोबाइल,हैण्डबैग,लैपटॉप सरे आम लूटे जा रहे हैं और थानों में कोई एफआईआर दर्ज करने को भी तैयार नहीं है क्योंकि एक ओर तो अपराध का ग्राफ बढेगा और दूसरी ओर तफ्तीश के लिए स्टाफ कहाँ से आएगा? पिछले लगभग दो दशकों में पुलिस की कार्यशैली और उसकी संस्कृति में भयंकर बदलाव आया है,पुलिस के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में राजनैतिक दखल इस हद तक बढ़ा है कि जो पुलिस कर्मी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में काम करतें हैं उन्हें मनचाही बढ़िया पोस्टिंग मिलती है और शेष तो धूल चाटते फिरतें हैं। एक और भयानक रोग जो घुन की तरह इस विभाग को खोखला कर रहा है वह है भ्रष्टाचार, पहले सुना जाता था कि कहीं-कहीं पुलिस वाले हफ्ता वसूल करते थे अब यह सुनने में आता है कि पुलिस वाले अपनी कुर्सी बचाने के लिए हफ्ता अदा कर रहें हैं। ईश्वर ही जानता है कि सच क्या है और इसका परिणाम क्या होगा ?पुलिस विभाग की सेवा शर्तें बहुत कठिन और कष्टदायक हैं ,थाना स्तर के कर्मचारियों की स्तिथि तो सबसे अधिक दयनीय है। मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। रहने को आवास नहीं है,समय पर अवकाश नहीं मिलता,प्रोन्नति के अवसर ना के बराबर हैं। खाना खाने,सोने व आराम करने का कोई समय नहीं है। जनता के मन से पुलिस का भय और सम्मान निकल चुका है। रास्ता जाम,थाने का घेराव,पथराव,पुलिस कर्मियों से हाथापाई अब रोज़ की बात हो गई है।
थाने की जीप में तेल अपनी जेब से डलवाना पड़ता है,दफ्तर में इस्तेमाल होने वाली स्टेशनरी भी खुद ही खरीदनी पड़ती है। अतः इस प्रकार के दम घोटू माहौल में यदि कोई संवेदनशील पुलिस कर्मी आत्महत्या कर लेता है तो ऐसी घटना दुखद तो जरूर होती है लेकिन आश्चर्यजनक बिल्कुल नहीं।
पुलिस की सेवा-शर्तों में सुधार के लिए आयोग तो कई बने लेकिन उनकी सिफारिशें गृह-मंत्रालय के रिकॉर्ड रूम में धूल चाट रहीं हैं इससे पहले कि स्तिथि विस्फोटक हो जाए शासन-प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए वरना बदमाशों के साथ मुठभेड़ में शहीद होने वाले पुलिस कर्मी खुदखुशी करने पर मजबूर हो जायेंगे।
पूजा सिंह आदर्श