
शाम हुई सज गए......... कोठों के बाज़ार,
मन का गाहक न मिला बिका बदन सौ बार।
ये शेर मैंने एक बार किसी कवि सम्मलेन में सुना था,जिसमे मुझे कई नामचीन कविओं और शायरों को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। शेर तो याद रहा लेकिन कवि नाम याद नहीं...खैर इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता...इसका मतलब समझने की जरुरत है कि कितनी गहरी बात छुपी है इस शेर में.....उस insan की पीड़ा छुपी है जिसे अपना बदन बेचने जैसा घिनौना काम करना पड़ता है.....कहने को तो लिखने के लिए ये कोई नया मुद्दा नहीं है पर फिर भी ये वो मुद्दा है जिसपर,लिखना जरूरी है और लगातार लिखा भी जाना चाहिए। मानवीय संवेदनाओं के चलते कुछ सामाजिक समस्याओं के प्रति हम उतने गंभीर नहीं होते जितना हमें होना चाहिए बस यही सोच कर रह जातें हैं कि अरे....इसपर तो कई बार और बहुत कुछ लिखा जा चुका है। लेकिन अपने दायित्व से पीछे न हटते हुए आज उस विषय पर कलम चलाने की सोची जो एक लड़की होने के नाते भी मुझे लिखने पर मजबूर करता है। मेरा ये लेख समर्पित है उन लड़किओं और महिलाओं के नाम जो अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए उस दल-दल में घुसने को मजबूर हो जाती हैं जिसे समाज ने वैश्यावृति का नाम दिया है।वैश्यावृति हमारे लिए कोई नयी चीज़ नहीं है ये कई सौ साल पहले भी होती थी और आज भी होती है ....वेश्यालयों को संरक्षण तब भी मिलता था और आज भी मिलता है.......इससे आने वाली सड़ांध पूरे समाज को दूषित करती है ये जानते तो सब हैं पर मानता कोई नहीं ......पर न मानने से सच झूठ में तो नहीं बदला करता ....
हर शहर में एक ऐसी बदनाम जगह जरूर होती है जिसे इस सभ्य समाज ने रेड लाइट एरिया का नाम दिया है। यहाँ शाम होते ही सज जाती है बेजान जिस्मो की मंडी,,,बेजान इस लिए कहा क्योंकि जान तो है पर आत्मा नहीं है,जिस काम को करने में आत्मा साथ न दे उसे और क्या कहा जाएगा??????अभी कुछ दिन पहले ही हमारे मेरठ शहर में यहाँ के रेड लाइट एरिया से पुलिस ने छापा मारकर करीब सात नेपाली लड़किओं को इस दल-दल से बाहर निकाला यहाँ से बरामद सभी लड़कियां नाबालिग थी और सभी की उम्र १६-१७ साल से जयादा नहीं थी। इन सभी लड़किओं को नेपाल से भारत काम दिलाने के बहाने से बहला-फुसलाकर लाया गया था। ये सब लड़कियां गरीब घरों की थी जिन्हें काम की बेहद जरुरत थी और इनकी इसी मजबूरी का फ़ायदा उठाकर,,,,जिस्म के दलालों ने इनकी इज्ज़त का सौदा करके ,इन्हें ये नरक भोगने के लिए छोड़ दिया। जहाँ हवस के भूखे भेड़िये इनके जिस्म को दिन रात नोचतें हैं। दलालों की इस मंडी में सब कुछ बिकता है......जिस्म के साथ आत्मा,इंसानियत ,भावनाएं ।इस दुनिया में सब कुछ बिकाऊ है, इसलिए इन सब के खरीदार मिल जायेंगे आपको। किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि कोई इस घिनौने काम को क्यों कर रहा है बस अपना मतलब निकलना चाहिए। अब क्या होगा इन लड़किओं का,,,क्या ये समाज में सर उठा कर जी पाएंगी....क्या इनके घर वाले इन्हें अपनाएंगे??कौन तो इन्हें काम देगा??कौन इनका हाथ थामेगा????एक बड़ा सवाल हम सब के लिए.........
मुझे नहीं नहीं लगता की कोई भी औरत शौकिया इस काम को करती होगी ,किसी भी औरत को खुद को धंधेवाली कहलवाना पसंद होगा....इससे बड़ा दाग तो उसके लिए हो ही नहीं सकता। अपने घर-परिवार को पालने,अपने बच्चों को दो वक़्त की रोटी खिलाने के लिए उसे इस कीचड में उतरना ही पड़ता है। कोई भी माँ अपने बच्चे को भूख से बिलखते हुए नहीं देख सकती जब उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचता तो अंत में उसे अपना जिस्म ही याद आता है,कि इसे ही बेच कर ही अपने बच्चे या घरवालों का पेट भर सके। क्यों??? आखिर???क्यों.... हम अपने को सभ्य कैसे कह सकते हैं जब हम किसी की मजबूरी का फ़ायदा उठा कर उससे वो काम कराएँ जिसे इस सभ्य समाज में सबसे ख़राब नजरों से देखा जाता है। न जाने कितनी मासूम लड़किओं को रोजाना इस दल-दल में धकेल दिया जाता है इनमे से शायद ही कोई खुशनसीब लड़की होती होगी जिसे इस नरक से समय रहते मुक्ति मिल जाए। पर मुक्ति मिलने से भी क्या होगा??????????????क्या ये समाज इन्हें वही इज्ज़त देगा जो इन्हें मिलनी चाहिए?????????????एक गंभीर सवाल पूरे समाज के लिए....???????
जो महिला इस गंदगी से बाहर निकलना चाहती है....क्या उसके पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं होनी चाहिए......क्या इस समाज में इनके लिए कोई जगह नहीं है।इनके मासूम बच्चों को इस गंदगी से निकालना क्या हमारा कर्त्तव्य नहीं है??हम क्या दे सकतें हैं इन्हें....इन सब के उत्तर हमे खोजने हैं अभी....लेकिन जल्द और समय रहते।
पूजा सिंह आदर्श